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________________ ८४) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ३, १८. घणलोगे भागे हिदे एगभागो आगच्छदि । लोगपेरंतवादखेत्तं संखेज्जजोयणबाहल्लं जगपदरं पुव्वपरूविदमाणेदूण एत्थेव पक्खिविय अट्ठपुढविखेत्तं तेसिं हेट्ठा द्विदवादजगपदरं संखेज्जजोयणबाहल्लमाणेदूण पक्खित्ते जेण लोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तं बादरेइंदियबादरेइंदियपज्जत्ताणं खेत्तं जादं, तेण बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्जत्ता' लोगस्स संखेज्जदिभागे होति त्ति सिद्धं । वेउब्धियसमुग्धादगदाणं एइंदिओघभंगो। मारणंतिय-उववादगदा सबलोगे । बादरेइंदियअपज्जत्ताणं बादरेइंदियभंगो । णवरि वेउव्यियपदं णत्थि । सुहुमे. इंदिया तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ता य सत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादगदा सबलोगे, सुहुमाणं सव्वत्थ अच्छणं पडि विरोहाभावादो । वीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिया तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता य केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ १८ ॥ राशिसे भाजित करनेपर, दो वटे पांच कम उनहत्तरसे घनलोकके भाजित करनेपर जो एक भाग होता है उतना लब्ध आता है, जो कि ५ घनराजु प्रमाण है। उदाहरण-१४५= ५, ५ ४९ = २ जगप्रतर । चूंकि यह वातपरिपूर्ण क्षेत्र १राजु मोटा है, अतएव ५ घनराजु हुआ,जो कि ३४३६८३=५३ घनलोक प्रमाण होता है। तथा पहले प्ररूपित किये गये लोकके चारों ओर प्रान्तभागमें संख्यात योजन बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण वातक्षेत्रको लाकर इसी पूर्वोक्त वातक्षेत्रमें मिलाकर तथा आठों पृथिवियोंके क्षेत्र और उनके नीचे स्थित वायुक्षेत्र, जो कि संख्यात योजन बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण हैं, उनको उसी पूर्वोक्त क्षेत्रमें मिला देनेपर चंकि लोकके संख्यातवें भागप्रमाण बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका क्षेत्र होता है, इसलिये बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं, यह सिद्ध हुआ। वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त हुए बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका क्षेत्र वैक्रियिकसमुद्धातगत सामान्य एकेन्द्रियोंके क्षेत्रके समान होता है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त हुए बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव सर्व लोकमें रहते हैं। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तों का क्षेत्र बादर एकेन्द्रियों के समान होता है। इतनी विशेषता है कि बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंके वैक्रियिकसमुद्धातपद नहीं होता है । स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त हुए सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव और उन्हींके पर्याप्त अपर्याप्त जीव सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, सूक्ष्म जीवोंके सर्व लोकमें पाये जाने में कोई विरोध नहीं है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव और उन्हींके पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीव १ प्रतिषु ' बादरेइंदिय० खेत्तं जादं । तेण बादरेइंदियपज्जत्ताणं ' इति पाठः । २ विकलेन्द्रियाणां लोकस्यासंख्येयमागः। स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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