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________________ १, ४, २५. ] फोसणाणुगमे तिरिक्खको सण परूवणं [२०५ एदिए वाण मारणंतियं मेलति त्ति एस परमत्थो । कधमेत्थ देसूणतं ? ण ताव हेट्ठिमजोयणसहस्सेण ऊणा सत्त चोहसभागा, तिरिक्खसासणेहि भवणवासिएस मारणंतियं मेलमाणेहि तस्स विछुवणसंभवोवलंभादो । मेरुमूलादो हेट्ठा देसूणजोयणलक्खं फुसंताणं सासादणाणं सत्त- चोदस भागेहि सादिरेगेहि होदव्यमिदि । ण एस दोसो, छमग्गं पयदेहि पडिणिय उपपत्तिट्ठाणेहि तसजीवेहि निरंतरं ण सत्त रज्जू फुसिज्जति, तथा संभवासंभवा । सो वि कथं वदे ? देसूणवयणण्णहाणुववत्तदो । उववादस्स एक्कारह चोदसभागा पोसिदा त्ति वत्तव्यं । सुते अउत्तं कधमेदं णव्वदे ? कम्मइयकाय जोगिसासणाणमेक्कारह-चोद्दस विवक्षासे कथन करने पर तो वे नारकियों में अथवा मेरुतलसे अधोभ. गवर्ती एकेन्द्रियजीवों में मारणान्तिकसमुद्धात नहीं करते हैं, यही परमार्थ है । शंका-यांपर अर्थात् मारणान्तिकसमुद्ध/तगत सासादन सम्यग्दृष्टियों के क्षेत्रमें देशोनता अर्थात् कुछ कम सात बटे चौदह भागका कथन कैसे किया, क्योंकि, मेदतलके अधोभागवर्ती एक हजार योजनसे कम सात बटे चौदह ( ४ ) भाग तो माने नहीं जा सकते । इसका कारण यह है कि भवनवासियों में मारणान्तिकसमुद्धातको करनेवाले तिच सासादनसम्यग्दृष्टियों के द्वारा उसके भी छुए जानेकी संभावना पाई जाती है । इसलिए मेरुतलसे नीचे कुछ कम एक लक्ष योजन प्रमाण क्षेत्रको स्पर्श करनेवाले तिर्यच सासादनसम्यग्दृष्टियों का मारणान्तिक स्पर्शनक्षेत्र साधिक सात बढे चौदह ( ) भाग होना चाहिए, न कि देशोन सात बटे चौदह भाग १ समाधान - यह कोई दोष नहीं । इसका कारण यह है कि छद्दों मार्गोंको प्रवृत्त, अर्थात् पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व और अधोदिशा सम्बन्धी छहों मार्गों से जानेवाले, एवं प्रतिनियत उत्पत्ति स्थानवाले सजीवोंके द्वारा निरन्तर सात राजु स्पर्श नहीं किये जाते हैं, क्योंकि, उस प्रकारकी संभावनाका अभाव है । शंका- यह भी कैसे जाना ? समाधान - ' देशोन' वचनकी अन्यथा अनुपपत्तिसे । अर्थात् यदि मारणान्तिकसमुद्रात करनेवाले सजीवोंके द्वारा निरन्तर सात राजु प्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया जाता, तो सूत्र' देशोन' यह वचन नहीं दिया जाता । इस अन्यथानुपपत्तिसे जाना जाता है कि मारणान्तिकसमुद्धात करनेवाले त्रसजीवोंके द्वारा सात राजुके स्पर्श किये जानेकी निरन्तर संभावना नहीं है । उपपदपदको प्राप्त तिर्यच सासादनसम्यग्दृष्टियोंने ग्यारह बटे चौदह ( १ ) भाग स्पर्श किये हैं, ऐसा कहना चाहिए । शंका-सूत्र में नहीं कही गई यह बात कैसे जानी जाती है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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