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________________ छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ५, २६. भागपोसगपरूवयसुत्तादो', खुद्दाबंधम्मि उववादपरिणयसासणाणमेक्कारह-चोइसभागपोसणपरूवयसुत्तादो च णबदे । एत्थ महंते उववादपोसणखेत्ते संते मारणंतियफोसणमेव किमg परूविदं ? ण', एत्थ उववादविवक्खाए अभावादो । तदविवक्खा किणिबंधणा', सासणाणमेइंदिएसु अणुप्पज्जमाणाणं तत्थ मारणंतियविहाणणिबंधणा । तेण उववादस्स एक्कारह चोद्दसभागा फोसणमुवलब्भदे । ___ सम्मामिच्छादिडीहि केवडियं खेतं फोसिदं, लोगस्स असंखे. ज्जदिभागों ॥२६॥ एदस्स सुत्तस्स वट्टमाणकाले सव्यपदपरूवणाए खेत्तभंगो। सत्थाणसत्थाणविहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउब्धियपदहिदसम्मामिच्छादिट्ठीहि तीदाणागदकालेसु तिण्हं समाधान-कार्मणकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके ग्यारह वटे चौदह (११) भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्रके प्ररूपक आगे कहे जानेवाले इसी स्पर्शनप्ररूपणाके सूत्रसे, तथा खुदाबंधमें कहे गये उपपादपरिणत सासादनसम्यग्दृष्टियोंके ग्यारह बटे चौदह (११) भागप्रमाण स्पर्शन करनेकी प्ररूपणा करनेवाले सूत्रले जाना जाता है कि उपपादपदको प्राप्त तिर्यच सासादनसम्यग्दृष्टियाने ग्यारह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं। शंका-उक्त प्रकारसे इतना अधिक उपपादपदका स्पर्शनक्षेत्र होते हुए भी यहां पर मारणान्तिक स्पर्शनक्षेत्र ही किसलिये प्ररूपण किया? समाधान-नहीं, क्योंकि यहां पर उपपादपदकी विवक्षाका अभाव है। शंका-उपपादपदकी विवक्षा न होनेका क्या कारण है ? समाधान-उपपादपदकी विवक्षा न होने का कारण एकेन्द्रियों में नहीं उत्पन्न होने चाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका उनमें मारणान्तिकसमुद्धातका विधान है। अर्थात् सासादनसम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते हैं, फिर भी वे उनमें मारणान्तिकसमुद्धात करते हैं। इसलिए यहां पर उपपादकी विवक्षा नहीं की गई, और इसीलिए उपपादपदका ग्यारह बटे चौदह (११) भाग प्रमाण स्पर्शनक्षेत्र प्राप्त हो जाता है। सम्यग्मिथ्यावृष्टि तियंचोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥२६॥ इस सूत्रकी वर्तमानकालमें स्वस्थानादि सर्व पदसम्बन्धी सर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररू. पणाके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कयाय और वैक्रियिकसमुद्धात, इन पांच पदोंवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि तिर्यंचोंने भूत और भविष्य इन दोनों कालों में सामान्यलोक मादि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे १ कम्मइयकायजोगीसुxx सासणसम्मादिद्यहि xx एकारह चोदसमागा देसूणा । जी. फो. ९६.९८. २ म प्रती ' ण 'इति पाठो नास्ति । ३ प्रतिषु ' किण्णबंधणा' इति पाठः। ४सम्बग्मिण्याडष्टिमिलोंकस्यासंख्येयभागः। स.सि. १, ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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