SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, ४, २८. ] फोसणागमे तिरिक्खफोसण परूवणं | २०७ लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाहज्जादो असंखेज्जगुणो । एत्थ पज्जवट्ठियपरूवणा सासणपरूवणाए तुल्ला । असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ २७ ॥ तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु त्ति महाधिकारो अणुवट्टदे । एदं सुतं वट्टमाणकालविसिड असजद सम्मादिट्ठि-संजदासंजदखेत्तं जदो परुवेदि, तदो एदस्स परूवणाए खेत मंगो । छ चोइसभागा वा देणा ॥ २८ ॥ असजद सम्मादिट्ठीहि सत्थाणपदे वट्टमाणेहि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो अदीदकाले पोसिदो । एदे असंजदसम्मादिट्टिणो सत्थाणपदे सव्वदीवेसु होंति, लवण-कालोदय-सयंभूरमणसमुद्देसु च । तम्हा सेससमुद्दखे तू गरज्जुपदरं एत्थ सत्थाणखेतं होदि । एदस्साणायणविधाणं पुत्रं व कादव्यं । विहार-वेदण-कसाय - वेउच्त्रियपदेसु वर्द्धता अदीदकाले तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदि असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यहां पर पर्यायार्थिकनयकी स्पर्शनप्ररूपणा सासादनगुणस्थानकी स्पर्शनप्ररूपणा के तुल्य जानना चाहिए । असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंचोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। २७ ।। 'तिर्यंचगतिमें तिर्यचोंमें' इस महाधिकार की यहांपर अनुवृत्ति होती है । चूंकि यह सूत्र वर्तमानकालविशिष्ट असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत तिर्यचों के स्पर्शन क्षेत्रका प्ररूपण करता है, इसलिए इसकी प्ररूपणा क्षेत्रके समान ही है । उक्त दोनों गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीवोंने अतीत और अनागतकालकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं || २८ ॥ स्वस्थानपदपर वर्तमान असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यचोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र अतीतकाल में स्पर्श किया है । ये असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यच स्वस्थानस्वस्थानपदपर सर्व द्वीपों में होते हैं, तथा लवणसमुद्र, कालोदकसमुद्र और स्वयम्भूरमणसमुद्र में भी होते हैं । इसलिए शेष समुद्रोंके क्षेत्रसे हीन राजुप्रतर यहांपर स्वस्थानक्षेत्र होता है । इसके निकालने का विधान पूर्वके समान ही करना चाहिए । विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रयिकसमुद्धात, इन पदोंपर वर्तमान जीवोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि तीन १ असंयत सम्यग्दृष्टिभिः संयतासंयतैर्लोकस्या संख्येयभागः षट् चतुर्दशभागा वा देशोनाः । स. सि. १,७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy