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________________ १, ४, ७१. ] फोसणानुगमै थारकाइयफा सण परूवणं [२५३ एदस्त सुत्तस्स अत्थो जधा खेत्ताणिओगद्दारे उत्तो तथा वत्तच्चो, वट्टमाणकाल - मणि द्विदत्तादो | सव्वलोगो वा ॥ ७० ॥ सत्थाणसत्थाण- वेदण-कसाय - वेउव्त्रियपरिणदेहि तिन्हं लोगाणं संखेज्जदिभागो, दोलोगेर्हितो असंखेज्जगुणो पोसिदो । मारणंतिय-उववादपदपरिणदेहि सव्वलोगो फोसिदो । वणदिकाइयणिगोदजीव बादर सुहुम-पज्जत - अपज्जत्तएहि केव डियं खेत्तं पोसिदं सव्वलोगो ॥ ७१ ॥ वणफदिकाइयणि गोदजीवसु हुमपजत्त - अपजत्तएहि सत्थाण- वेदण- कसाय-मारणंतिय उववादपरिणदेहि तिसु वि कालेसु सव्वलोगो पोसिदो । बादरवणफदिकाइयबादरणिगोद-तेसिं पञ्जत्त - अपजत्तएहिं सत्थाण- वेदण-कसायपरिणदेहि तिसु वि कालेसु इस सूत्र का अर्थ जैसा क्षेत्रानुयोगद्वार में कहा है, उसी प्रकार से यहां पर कहना चाहिए, क्योंकि, वर्तमानकालको आश्रय करके यह सूत्र स्थित है अर्थात् कहा गया है । बाद वायुकायिक पर्याप्त जीवोंने अतीत और अनागतकालकी अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ ७० ॥ स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धात परिणत उक्त जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका संख्यातवां भाग और मनुष्यलोक तथा तिर्यग्लोक, इन दोनों लोकोंसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत उक्त जीवने सर्वलोक स्पर्श किया है । वनस्पतिकायिक जीव, निगोद जीव, वनस्पतिकायिक बादर जीव, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म जीव, वनस्पतिकायिक बादर पर्याप्त जीव, वनस्पतिकायिक बादर अपर्याप्त जीव, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म पर्याप्त जीव, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म अपर्याप्त जीव, निगोद बादर पर्याप्त जीव, निगोद बादर अपर्याप्त जीव, निगोद सूक्ष्म पर्याप्त जीव और निगोद सूक्ष्म अपर्याप्त जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है १ सर्वलोक स्पर्श किया है ।। ७१ ।। स्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन पदोंसे परिणत वनस्पतिकायिक निगोद जीव और उनके सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंने तीनों ही कालोंमें सर्वलोक स्पर्श किया है । स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्धातपदपरिणत बादर बनस्पतिकायिक, बादर निगोद उनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवोंने तीनों ही कालोंमें सामान्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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