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________________ १, ४, ५५.] फोसणाणुगमे देवफोसणपरूवणं [२३९ भागा देसूणा पोसिदा, चित्ताए उवरिमतलादो हेट्ठा एदेसि गमणाभावादो। मिच्छादिहिसासणसम्मादिट्ठीणं उववादो चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज. गुणो । कुदो ? एगपणदालीसजोयणलक्खविक्खंभ संखेज्जरज्जुआयदमुववादखेत्तं तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागं ण पावेदि त्ति । सम्मामिच्छाइट्ठीणं मारणंतिय-उववादपदं णस्थि । असंजदेसम्माइट्ठीहि उववादपरिणदेहि अद्धछक्क चोद्दसभागा देसूणा पोसिदा । आरणच्चुदकप्पे छ चोद्दसभागा देसूणा पोसिदा । किं कारणं ? तिरिक्खअसंजदसम्मादिदि-संजदासंजदाणं वेरियदेवसंबंधेण सम्बदीव-सायरेसु द्विदाणं तत्थुववादोवलंभादो। ___णवगेवज्जविमाणवासियदेवेसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं,लोगस्स असंखेज्जदिभागो॥५५॥ ___ एदस्स सुत्तस्स वद्दमाणपरूवणा खेत्तभंगो । अदीदपरूवगा वि खेत्तभंगो चेय । कुदो ? चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागत्तेण, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणत्तेण च समाणत्तुवलंभादो । छह बटे चौदह () भाग स्पर्श किये हैं, क्योंकि, चित्रा पृथिवीके उपरिम तलसे नीचे इनके गमनका अभाव है। उक्त मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंका उपपादकी अपेक्षा स्पर्शनक्षेत्र सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि, पैंतालीस लाख योजन विष्कम्भवाला और संख्यात राजुप्रमाण भायत उक्त देवोंका उपपादक्षेत्र भी तिर्यग्लोकके संग गतवें भागको नहीं प्राप्त होता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंके मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपद नहीं होते हैं। आनत-प्राणत कल्पके उपपादपरिणत असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंने कुछ कम साढ़े पांच बटे चौदह (१) भाग स्पर्श किये हैं। आरण और अच्युतकल्पमें उक्त पदपरिणत जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह ( ) भाग स्पर्श किये हैं । इसका कारण यह है कि वैरी देवोंके सम्बन्धसे सर्व द्वीप और सागरों में विद्यमान तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंका आरण-अच्युतकल्पमें उपपाद पाया जाता है। नवौवेयक विमानवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक विमानके गुणस्थानवर्ती देवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ५५ ॥ इस सूत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान जानना चाहिए। तथा अतीतकालिक स्पर्शनप्ररूपणा भी क्षेत्रप्ररूपणाके समान ही है, क्योंकि, सामान्यलोक आदि चार लोकों के असंख्यातवें भागसे तथा मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणित क्षेत्रकी अपेक्षा समानता पाई जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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