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________________ स्पर्शनानुगम-विषय-सूची क्रम नं. विषय पृ. नं. क्रम नं. विषय पृ. नं. ७५ भवनवासियों में उत्पन्न होनेवाले | ८५ सौधर्म और ईशानकल्पवासी तिर्यचोंका उपपाद सम्बन्धी देवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे स्पर्शनक्षत्र साधिक पांच राजु लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणक्यों नहीं होता, इस शंकाका स्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती समाधान २२६-२२७ । देवोंका स्पर्शनक्षेत्र ७६ सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत. २३४-२३६ सम्यग्दृष्टि देवोंके वर्तमान तथा ८६ इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमानोंके विस्तारका निरूपण अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्रका २३४ ८७ सौधर्मादि सर्व कल्पोंके विमासोपपत्तिक निरूपण । नोंकी संख्याका निरूपण २३५-२३६ ७७ मिथ्यादृष्टि और सासादन ८८ सौधर्मकल्पवासी देवोंका सम्यग्दृष्टि भवनत्रिक देवोके स्पर्शनक्षेत्र देवोंके ओघस्पर्शनके वर्तमानकालिक स्पर्शनक्षेत्रका समान क्यों है, इसका सोपसयुक्तिक निरूपण २२८-२२९ पत्तिक निरूपण ७८ उक्त देवोंके अतीतकालिक २३६ ८९ सनत्कुमारकल्पसे लेकर सहस्पर्शनक्षेत्रका सोपपत्तिक नारकल्प तकके मिथ्यादृष्टि निरूपण २२९-२३२ ७९ उपपादपदगत मिथ्यादृष्टिभवन आदि चारों गुणस्थानवर्ती वासी देवोंके स्पर्शनक्षेत्रसम्बन्धी देवोंका वर्तमान और अतीतअनेक अपूर्व शंकाओंका समाधान २३० कालिक स्पर्शनक्षेत्र २३७-२३८ ८० मिथ्यादृष्टि और सासादन ९० आनतकल्पसे लेकर अच्युतसम्यग्दृष्टि व्यन्तरदेवोंके स्वस्था कल्प तकके मिथ्यादृष्टि आदि . नादि पदोंके स्पर्शनक्षेत्रका सोप चारों गुणस्थानवर्ती देवोंके वर्त. पत्तिक निरूपण २३०-२३१ मान और अतीतकालिक स्पर्शन क्षेत्रका सोपपत्तिक निरूपण २३८-२३९. ८१ उपपादकी अपेक्षा तिर्यग्लोकसे १नवौवेयकोंके मिथ्यादृष्टि आदि असंख्यातगुणा क्षेत्र वर्तमानकालमें व्याप्त करके स्थित चारों गुणस्थानवर्ती देवोंका व्यन्तरदेव अतीतकालमें कैसे वर्तमान और अतीतकालिक तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागको स्पर्शनक्षेत्र स्पर्श करते हैं, इस शंकाका ९२ नव अनुदिश और पांच अनु त्तर विमानवासी असंयतसम्य, सयुक्तिक समाधान ८२ व्यन्तरोंके प्रसंगोपात्त आवास ग्दृष्टि देवोंका स्पर्शनक्षेत्र । २४० स्थानोंका निरूपण २३२ २ (इन्द्रियमार्गणा) २४०-२४६ ८३ उपपादगत ज्योतिष्क देवोंका ९३ बादर, सूक्ष्म और पर्याप्त अपस्पर्शनक्षेत्र २३२-२३३, र्याप्त एकेन्द्रिय जीवोंका स्पर्शन८४ सम्यग्मिथ्यादष्टि और असंयत क्षेत्र २४०-२४२ “सम्यग्दृष्टि भवनत्रिक देवोंका ९४ बादर एकेन्द्रिय और बादर वर्तमान और अतीतकालिक एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र .. ...... २३३-२३४ -स्पर्शनक्षेत्र सामान्य लोक आदि . .... २३९ आवास निरूपण ६३ उपपा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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