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________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ११३. संखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ अच्छदि । पुणो णिच्छएण अण्णत्थ गच्छदि त्ति जं वुत्तं होदि । कम्मद्विदिमावलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे बादरद्विदी जादा ति परियम्मवयणेण सह एवं सुत्तं विरुज्झदि त्ति दस्स ओक्खत्तं, सुत्ताणुसारि परियम्मवयणं ण होदि त्ति तस्सेव ओक्खत्तप्पसंगा। बादरेइंदियपज्जता केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ११३ ॥ कुदो ? बादरेइंदियपज्जत्ताणं तिसु वि कालेसु विरहाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ ११४ ॥ खुद्दाभवग्गहणं संखेज्जावलियमेतं, एगं मुहुतं छासट्ठिसहस्स-तिसद-छत्तीसरूवमेत्तखंडाणि कादूण एगखंडमेत्तत्तादो । एदं पि कधं णव्यदे ? तिणि सया छत्तीसा छावहि सहस्स चेव मरणाई । अंतोमुहुत्तकाले तावदिया होंति खुद्दभवा ॥ ३५ ॥ तक रहता है, तो असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी तक रहता है। पुनः निश्चयसे अन्यत्र चला जाता है, ऐसा अर्थ कहा गया समझना चाहिए। शंका-'कर्मस्थितिको आवलीके असंख्यातवें भागले गुणा करने पर बादर स्थिति होती है। इस प्रकारके परिकर्म-वचनके साथ यह सूत्र विरोधको प्राप्त होता है ? समाधान-परिकर्म के साथ विरोध होनेसे इस सूत्रके अवक्षिप्तता (विरुद्धता) नहीं प्राप्त होती है, किन्तु परिकर्मका उक्त वचन सूत्रका अनुसरण करनेवाला नहीं है, इसलिए उसके ही अवक्षितताका प्रसंग आता है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ११३॥ क्योंकि, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंका तीनों ही कालों में विरह नहीं होता है। ___ एक जीवकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहर्त है ॥ ११४॥ क्षुद्रभवग्रहणका काल संख्यात आवलीप्रमाण होता है, क्योंकि, एक मुहूर्तके छयासठ हजार तीन सौ छत्तीस रूपप्रमाण खंड करने पर एक खंडप्रमाण क्षुद्रभवका काल होता है। शंका-यह भी कैसे जाना! समाधान- एक अन्तर्मुहूर्त कालमें छयासठ हजार तीन सौ छत्तीस मरण होते हैं, और इतने ही क्षुद्रभव होते हैं ॥ ३५॥ १ छत्तीसं तिणि सया गवद्विसहस्सवारमरणाणि । अंतो हुतमझे पत्तोसि णिगोयवासम्मि ॥ भावपा. १८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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