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________________ १, ५, ११२. ] कालानुगमे एइंदियकालपरूवणं [ ३८९ बादरएइंदिया केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ११० ॥ बादरेइंदियविरहिदकालाभावादो । किमहं तेसिं णत्थि विरहो ? सहावदो । एगजीवं पहुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १११ ॥ इंदियस हुमेदियस्स वा बादरेइंदिएसु सव्वजहण्णाउवएसुप्पज्जिय अणिदियं गदस्त खुद्दाभवग्गहण मेत्तबादरे इंदियभवद्विदीए उवलंभा । उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसपिणि उस्सप्पिणीओ ॥ ११२ ॥ अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो अणेयवियप्पो ति कट्टु पदरावलियां दिट्ठिमवियपाणं पडिसेहं काढूण उवरिमवियप्पगहणङ्कं असंखेज्जासंखेज्जाणि ति णिद्देसो कदो पदर - पल्लादिउवरिमवियप्पपडिसेहहुं ओसप्पिणि-उस्सप्पिणिणिद्देसो कदो । अणेइंदिओ सुहुमेइंदिओ वा बादरेईदिएंसु उपज्जिय तत्थ जदि सुट्टु महल्लं कालमच्छदि तो असंखेज्जा 1 बादर एकेन्द्रिय जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ११० ॥ क्योंकि, बादर एकेन्द्रिय ओवोंसे रहित कालका अभाव है । शंका- उनका विरह क्यों नहीं होता है ? समाधान - क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । एक जीवकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभव ग्रहणप्रमाण है ॥ १११ ॥ क्योंकि, किसी अन्य द्वीन्द्रियादि जीवका, अथवा सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवका सर्व जघन्य आयुवाले बादर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर पुनः अन्य द्वीन्द्रियादिमें उत्पन्न हुए जीवके क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण बादर एकेन्द्रिय जीवोंकी भवस्थिति पाई जाती है । एक जीवकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय जीवोंका उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्याता संख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी प्रमाण है ।। ११२ ॥ अंगुलका असंख्यातवां भाग अनेक विकल्परूप है, इसलिए प्रतरावली आदि अधस्तन विकल्पोंका प्रतिषेध करके उपारम विकल्पोंके ग्रहण करनेके लिए सूत्र में ' असं क्याता संख्यात ' ऐसा निर्देश किया । प्रतर, पल्य आदि उपरिम 'विकल्पों के प्रतिषेध करनेके लिए अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी' इस पदका निर्देश किया है। अन्य द्वीन्द्रियादि अथवा सूक्ष्म एकेन्द्रिय कोई जीव बादर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर वहां पर यदि अति दीर्घकाल १ प्रतिष्ठ 'पदरावलियाओ ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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