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________________ १, ५, २.] कालाणुगमे मिच्छादिट्टिकालपरूवणं [ ३२३ वलंबणादो । किमर्से दुविहो णिद्देसो उसहसेणादिगणहरदेवेहि कीरदे ? ण एस दोसो, उहयणयमवलंबिय ट्ठिदसत्ताणुग्गहढे तधोवदेसादो । __ ओघेण मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥२॥ 'जहा उद्देसो तहा णिदेसो होदि' त्ति जाणावणटुं ओघणिद्देसो कदो। सेसगुणहाणपडिसेहफलो मिच्छाइट्ठिणिद्देसो । कालादो कालेण णिहालिज्जमाणे केवचिरं होति ति पुच्छा जिणपण्णत्तत्थमिदं सुत्तमिदि पदुप्पायणफला । बहुसु णाणाजीवमिदि एगवयणणिदेसो जादिणिबंधणो ति ण दोसयरो । सव्यद्धा इदि कालविसिट्ठबहुजीवणिदेसो। कुदो? सव्या अद्धा कालो जेसिं जीवाणमिदि व-समासवसेण बज्झट्टप्पवुत्तीए । अधवा, सव्वद्धा इदि कालणिद्देलो। कथं ? मिच्छादिट्ठीणं कालत्तणण्णपरिणामिणो परिणामेहिंतो कथंचि अभेदमासेज मिच्छादिट्ठीणं कालत्ताविरोहा । सव्यकालं णाणाजीवे पडुच्च मिच्छादिट्ठीणं वोच्छेदो णत्थि त्ति भणिदं होदि । अवलंबन किया गया है। शंका - वृषभसेनादि गणधरदेवोंने दो प्रकारका निर्देश किसलिए किया है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, इन दोनों नयोंको अवलम्बन करके स्थित प्राणियोंके अनुग्रहके लिए दो प्रकारके निर्देशका उपदेश किया है। ओघसे मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ २॥ _ जिस प्रकारसे उद्देश होता है, उसी प्रकारसे निर्देश किया जाता है। यह बात जत. लाने के लिए सूत्रमे 'ओघ' पदका निर्देश किया। 'मिथ्यादृष्टि' पदका निर्देश, शेष गुणस्थानोंके प्रतिषेधके लिए है। 'कालसे' अर्थात् कालकी अपेक्षा जीवोंके संभालने पर 'कितने काल तक होते हैं। इस प्रकारकी यह पृच्छा 'यह सूत्र जिनप्रशप्त है' इस बातके बताने के लिए है। जीवोंके बहुत होनेपर भी 'नाना जीव' इस प्रकारका यह एक वचनका निर्देश जातिनिबंधनक है, इसलिए कोई दोषोत्पादक नहीं है । 'सर्वाद्धा' यह पद कालविशिष्ट बहुतले जीवोंका निर्देश करनेवाला है, क्योंकि, सर्व अद्धा अर्थात् काल जिन जीवोंके होता है, इस प्रकारसे 'व' समास अर्थात् बहुव्रीहिसमासके वशसे बाह्य अर्थकी प्रवृत्ति होती है। अथवा 'सर्वाद्धा' इस पदसे कालका निर्देश जानना चाहिए, क्योंकि, मिथ्यादृष्टियोंके कालत्वले अभिन्न णामीके परिणामोंसे कथंचित् अभेदका आश्रय करके मिथ्यादृष्टियों के कालत्वका कोई भेद नहीं है। अर्थात् नाना जीवोंकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवोंका सर्वकाल व्युच्छेद नहीं होता है, यह कहा गया है। १मिथ्यादृष्टे नानीवारेक्षया सर्वः कालः | स. सि. १.८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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