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________________ ३२२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, १. पक्खुत्तदोसो संभवदि, अणब्भुवगमा । णाणण्ण पक्खदोसो वि, इद्वत्तादो। ण च कालस्स कालेण णिद्देसो णत्थि, सुज्जमंडलंतरट्ठियकालेण तत्तो पुधभूदसुज्जमंडलट्ठियकालणिसादो। अधवा, जधा घडस्स भावो, सिलावुत्तयस्स सरीरमिच्चादिसु एक्कम्हि वि भेदववहारो, तहा एत्थ वि एक्कम्हि काले भेदेण' ववहारो जुज्जदे । कदिविधो कालो ? सामण्णेण एयविहो । तीदो अणागदो वदृमाणो त्ति तिविहो । अधवा गुणद्विदिकालो भवद्विदिकालो कम्मट्ठिदिकालो कायट्ठिदिकालो उववादकालो भावट्ठिदिकालोत्ति छव्धिहो । अहवा अणेयविहो परिणामेहिंतो पुधभूदकालाभावा, परिणामाणं च आणतिओवलंभा। जहत्थमवबोहो अणुगमो । कालस्स अणुगमो कालाणुगमो, तेण कालाणुगमेण । णिद्देसो कहणं पयासणं अहिव्यत्तिजणणमिदि एयट्ठो । सो च दुविहो, ओघेण आदेसेण चेदि । तत्थ ओघणिद्देसो दव्वद्वियणयपदुप्पायणो, संगहिदत्थादो । आदेसणिदेसो पज्जवट्ठियणयपदुप्पायणो, अत्थभेदा दोष तो संभव है नहीं, क्योंकि, हम कालके कालको कालसे भिन्न मानते ही नहीं है । और न अनन्य या अभिन्न पक्षमें दिया गया दोष ही प्राप्त होता है, क्योंकि, वह तो हमें इष्ट ही है, (और इष्ट वस्तु उसीके लिए दोषदायी नहीं हुआ करती है)। तथा, कालका कालसे निर्देश नहीं होता हो, ऐसी भी बात नहीं है, क्योंकि, अन्य सूर्यमंडल में स्थित कालद्वारा उससे पृथग्भूत सूर्यमंडलमें स्थित कालका निर्देश पाया जाता है । अथवा, जैसे घटका भाव शिलापुत्रकका (पाषाणमूर्तिका) शरीर, इत्यादि लोकोक्तियों में एक या अभिन्न में भी भेद व्यवहार होता है, उसी प्रकारसे यहां पर भी एक या अभिन्न कालमें भी भेदरूपसे व्यवहार बन जाता है। शंका-काल कितने प्रकारका होता है ? समाधान-सामान्यसे एक प्रकारका काल होता है। अतीत, अनागत और वर्तमानकी अपेक्षा तीन प्रकारका होता है। अथवा, गुणस्थितिकाल, भवस्थितिकाल, कर्मस्थितिकाल, कायस्थितिकाल, उपपादकाल और भावस्थितिकाल, इस प्रकार कालके छह भेद हैं। अथवा काल अनेक प्रकारका है, क्योंकि, परिणामोंसे पृथग्भूत कालका अभाव है, तथा परिणाम अनन्त पाये जाते हैं। यथार्थ अवबोधको अनुगम कहते हैं, कालके अनुगमको कालानुगम कहते हैं । उस कालानुगमसे । निर्देश, कथन, प्रकाशन, अभिव्यक्तिजनन, ये सब एकार्थक नाम है। वह निर्देश दो प्रकारका है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उक्त दोनों प्रकारके निर्देशों में से ओघनिर्देश द्रव्यार्थिकनयका प्रतिपादन करनेवाला है, क्योंकि, उसमें समस्त अर्थ संगृहीत हैं। आदेशनिर्देश पर्यायार्थिकनयका प्रतिपादन करनेवाला है, क्योंकि, उसमें अर्थभे १ अप्रतौ कालभदेण' इति पाठः। २ गो. जी. ५५७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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