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________________ क्रम नं. विषय विषय क्षेत्रानुगम-विषय-सूची पृ. नं. 1 क्रम नं. १२१-१२५ १२३ उध्यपर्याप्तक जीवों में चक्षुदर्शन पाया जाता है, या नहीं, इस शंकाका समाधान | १२४ अचक्षुदर्शनी जीवों में मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तकका क्षेत्र- निरूपण | १२५ अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी जीवोंका क्षेत्र ८ संयममार्गणा ११२ संयमी जीवोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक के जीवोंका क्षेत्र १९३ द्रव्यार्थिक नयदेशनाका प्रयोजन ११४ सयोगिकेवलीका क्षेत्र और पृथक् सूत्र निर्माणका प्रयोजन ११५ सामायिक और छेदोपस्थापना संयतों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक के संयत जीवोंका क्षेत्र ११६ परिहारविशुद्धिसंयत, सामायिक और छेदोपस्थापना शुद्धिसंयतों से पृथग्भूत क्यों नहीं, इस शंकाका समाधान ११७ परिहारविशुद्धिसंयमी प्रमत्तऔर अप्रमत्त संयतका क्षेत्र ११८ सूक्ष्मसाम्पराय संयमवाले उपशामक और क्षपक जीवोंका क्षेत्र ११९ यथाख्यातसंयमी, संयमासंयमी और असंयमी मिथ्यादृष्टि जीवोंका पृथक् पृथक् क्षेत्र - निरूपण १२० ओघप्ररूपणा के भेद - प्रभेद और प्रकृतमें किस ओघसे प्रयोजन है, यह बताकर तत्सम्बन्धी शंका-समाधान Jain Education International १२१ असंयमी सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका क्षेत्र ९ दर्शनमार्गणा १२२ चक्षुदर्शनी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक क्षेत्र-निरूपण १२१ १२२ " १२२-१२३ 35 55 १२४ १२९ वैक्रियिक, मारणान्तिक और उपपादपद्गत पद्मलेश्यावाले जीवों में कौनसी राशि प्रधान है, इस बातका निरूपण | १३० शुक्लेश्यावाले जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय तक के जीवोंका क्षेत्र १२५ १३१ शुक्ललेश्यावाले सयोगिकेवली का क्षेत्र और अलेश्य जीवोंका क्षेत्र नहीं कहनेका कारण ११ भव्यमार्गणा १३२ भव्यसिद्धिक जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में जीवोंका क्षेत्र 39 १२६-१२८ १० श्यामार्गणा १२६ कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि जीवोंका पृथक् पृथक् क्षेत्रवर्णन | १२७ तेज और पद्मलेश्यावालों में मिथ्यादृष्टिले लेकर अप्रमत्तसंयत तक के जीवोंका क्षेत्र १२८ मारणान्तिक समुद्धात गत तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके क्षेत्र में विशेषता का वर्णन १२६ For Private & Personal Use Only ( ३५ ) पू. नं. १२६ १२७ "S १२८-१३१ ઢ १२९ १३० 99 १३१ १३१-१३३ १३१ www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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