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( ३३ ) क्रम नं.
विषय
५ वेदमार्गणा ९३ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण तक के स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंका क्षेत्र, तथा तत्सम्बन्धी विशेषताओंका वर्णन
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
पृ. नं. / क्रम नं.
१११-११३ ७ ज्ञानमार्गणा
९४ मिथ्यादृष्ट्यादि नौ गुणस्थानवर्ती नपुंसकवेदी जीवोंका क्षेत्र, तथा तत्सम्बन्धी विशेषताओं का वर्णन ९५ अपगतवेदी जीवोंका क्षेत्र ६ कषायमार्गणा
९६ क्रोध, मान, माया और लोभकषायी मिथ्यादृष्टि जीवोंका क्षेत्र
९७ सासादनसम्यग्दृष्टि
गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक के क्रोध, मान, माया और लोभकषायी जीवोंका क्षेत्र
९८ सूत्र में ओघपद क्यों नहीं कहा, इस शंकाका समाधान ९९ 'लोकके असंख्यातवें भाग में ' इतना ही पद सूत्रमें कहने से प्रकृत में 'मानुषक्षेत्र के भी असंख्यातवें भागमें रहते हैं ' यह अर्थ क्यों नहीं लेना चाहिए, इस शंकाका, तथा इसीके अन्तर्गत एक और भी शंकाका समाधान
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१०० लोभकषायी सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयतका क्षेत्र १०१. अकषायी जीवोंका क्षेत्र १०२ उपशान्तकषायी जीवको अकपाय कैसे कहा, इस शंकाका तथा इसीके अन्तर्गत कुछ अन्य भी शंकाओंका समाधान
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११३-११७
११३
समाधान
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११३ १०६ विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका क्षेत्र, तथा स्वस्थानादि पदगत विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में और मनुष्य लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में ही क्यों रहते हैं, इस शंकाका समाधान | १०७ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक मति, श्रुत और अवधिज्ञानी जीवोंका क्षेत्र
११४
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११७
विषय
१०३ मत्यज्ञानी और श्रुताशानी मिथ्यादृष्टि जीवोंका क्षेत्र १०४ मत्यज्ञानी और श्रुताशानी सासादन सम्यग्दृष्टियोंका क्षेत्र | १०५ अचेतन और क्षणक्षयी शब्द की अविनष्टरूप से अनुवृत्ति कैसे हो सकती है, इस शंकाका
११५ ११० केवलज्ञानी
प्र. नं.
११७-१२१
| १०८ प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषायान्त मन:पर्ययज्ञानी जीवोंका क्षेत्र
१०९ पर्यायार्थिक और द्रव्यार्थिकनयी देशनाओंके कहनेका प्रयोजन
सयोगिकेवली
और अयोगिकेवली जिनोंका क्षेत्र
१११ स्वस्थानस्वस्थान
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पदका स्वरूप बतलाकर क्षीणमोही अयोगिकेवली में उसकी असंभवताका आपादन और
समाधान
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