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________________ १५८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १. परंपरागओवएसस्स जुत्तिवलेण विदधावेदुमसकियत्तादो, अदिदिएसु पदत्थेसु छदुमत्थवियप्पाणमविसंवादणियमाभावादो । तम्हा चिरंतणाइरियवक्खाणापरिच्चारण एसा वि दिसा हेदुवांदाणुसारिउप्पण्णसिस्साणुरोहेण अउप्पण्णजण उप्पायणटुं च दरिसेदव्या । तदो ण एत्थ संपदायविरोहासंका कायया त्ति । ........................ (२) दूसरा दृष्टान्त आयत-चतुरस्र लोकसंस्थानके उपदेशका दिया है, जिसका अभिप्राय समझने के लिए क्षेत्रानुगम (इसी चतुर्थ भाग) के पृष्ठ ११ से २२ तकका अंश देखिए । यहांपर उल्लेख करनेका प्रयोजन यह है कि धवलाकारके सामने विद्यमान करणानुयोगसम्बन्धी साहित्यमें आयत-चतुरस्र लोकके आकारका विधान या प्रतिषेध कुछ भी नहीं मिल रहा था, तो भी उन्होंने प्रतरसमुद्धातगत केवलीके क्षेत्रके साधनार्थ कही गई दो गाथाओंके (देखो क्षेत्रप्र. पृष्ठ २०, २१) आधारपर यह सिद्ध किया है कि लोकका आकार आयत-चतुष्कोण है, न कि अन्य आचार्योंसे प्ररूपित १६४३३६ घनराजुप्रमाण मृदंगके समान । यदि ऐसा न माना जायगा, तो उक्त दोनों गाथाओंको अप्रमाणता और लोकमें ३४३ घनराजुओंका अभाव प्राप्त होगा। इसलिए लोकका आकार आयत-चतुरस्र ही मानना चाहिए। (३) धवलाकारने जिस प्रकार उक्त दोनों बातोंको तात्कालिक करणानुयोगसम्बन्धी शास्त्रों में उल्लेख अथवा, आचार्योंकी उपदेश-परम्पराके नहीं मिलने पर भी उक्त प्रकारकी सूत्रावलम्बित युक्तियों के बलसे उन्हें सिद्ध किया है, उसी प्रकारसे यहां पर भी करणानुयोगके ग्रन्थों में या आवार्य उपदेशपरम्परामें उपलब्ध नहीं होने पर भी प्रतिनियत सूत्राश्रित तर्कके बलसे वे यह सिद्ध कर रहे हैं कि स्वयम्भूरमणसमुद्र के परभ ग में भी असंख्यात द्वीप-समुद्रोंके व्यास-रुद्ध योजनोंसे संख्यात हजारगुने योजन आगे जाकर तिर्यग्लोककी समाप्ति होती है, अर्थात् स्वयम्भूरमणसमुद्रकी बाह्यवेदिकाके परे भी पृथिवीका अस्तित्व है। वहां भी गजुके अर्धच्छेद उपलब्ध होते हैं, किन्तु वहांपर ज्योतिषी देवों के विमान नहीं हैं। इसलिए यहांपर 'यह ऐसा ही है। इस प्रकार एकान्त हठ पकड़ करके असद् आग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि, परम गुरुओंकी परम्परासे आये हुए उपदेशको युक्तिके बलसे भयथार्थ सिद्ध करना अशक्य है, तथा अतीन्द्रिय पदार्थोंमें छद्मस्थ जीवोंके द्वारा उठाये गए विकल्पोंके अविसंवादी होनेका नियम नहीं है। अतएव पुरातन आचार्योंके व्याख्यानका परित्याग न करके यह भी दिशा हेतुवाद (तर्कवाद) के अनुसरण करनेवाले व्युत्पन्न शिष्यों के भनुरोधसे तथा अव्युत्पन्न शिष्य जनोंके व्युत्पादनके लिए दिखाना चाहिए । इसलिए यहांपर सम्प्रदायके विरोधकी आशंका नहीं करना चाहिए। १ प्रतिषु · विहदाविद् ', म प्रतौ — विहदावेदुः' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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