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________________ १, ४, १४८.] फोसणाणुगमे किण्ह-णील-काउलेस्सियफोसणपरूवणं [२९१ ...सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेजदिभागो॥ १४७ ॥ एदस्त सुत्तस्स परूवणा खेत्तभंगो, अल्लीणवट्टमाणत्तादो । पंच चत्तारि वे चोदसभागा वा देसूणा ॥ १४८॥ सत्थाणसत्थाण-विहार-वेदण-कसाय-वेउबियपरिणदेहि किण्ह-णील-काउलेस्सियसासणेहि तीदे काले तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइजादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । देवे मोत्तूण णेरइय-अपज्जत्तभवणवासिय-वाण-तर-जोदिसिय-तिरियतिरिक्खसु चेव एदस्स खत्तस्सुवलंभादो तिरियलोगस्स संखेजदिभागत्तमुववणं । मारणंतिय-उववादपरिणदेहि किण्ह-णील-काउलेस्सियसासणेहि जहाकमेण देसूणा पंच चत्तारि वे चोद्दसभागा पोसिदा । णेरइएहितो तिरिक्खेसु उप्पज्जमाणसासणे पेक्खिदूण एसा फोसणपरूवणा कदा । देवेहिंतो एइंदिएसु मारणंतियं मेल्लमाणसासणखेत्ते गहिदे उक्त तीनों अशुभलेश्याओंवाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १४७॥ वर्तमानकालको व्याप्त करनेसे इस सूत्रकी प्ररूपणा क्षेत्रके समान है । तीनों अशुभलेश्याओंवाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम पांच बटे चौदह, चार बटे चौदह और दो बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ १४८॥ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यासवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यात. गुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । कल्पवासी देवोंको छोड़कर नारकी, अपर्याप्त भवनवासी, वानव्यंतर और ज्योतिष्कदेव तथा तिर्यग्लोकवर्ती तिर्यंचों में ही यह उक्त क्षेत्र पाया जानेसे तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका कथन युक्तिसंगत है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत छठी पृथिवीके नारकी सासादनसम्यग्दृष्टि कृष्णलेश्यावाले जीवोंने कुछ -कम पांच बटे चौदह (२४) भाग, नीललेश्यावाले पांचवीं पृथिवीके नारकी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने कुछ कम चार बटे चौदह (११) भाग, और कापोतलेश्यावाले तीसरी पृथिवीके नारकी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने कुछ कम दो बटे चौदह (३) भाग स्पर्श किये हैं। नारकियोसे तिर्यंचोंमें उत्पन्न होनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंको देखकर अर्थात् उनकी अपेक्षासे यह स्पर्शनप्ररूपणा की गई है। - १ सातादनसम्यग्दृष्टिमिलोकस्यासंख्येयभागः पंच चत्वारो द्वौ चतुर्दशभागा का देशोनाः । स. सि, 1, ८ १ क प्रतौ । तिरिय ' इति पाठो नास्ति । . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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