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________________ २९२) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १४८. पुचिल्लखेतेण सह जहाकमेण वारस-एक्कारस-णव-चौदसभागमेत्तखेत्तं किण्ण लब्भदि त्ति उत्ते ण लब्भदि, देवाणमप्पणो आउवचरिमसमओ ति पुबिल्लतेउ-पम्म-सुक्कलेस्साणं विणासाभावा । किण्ह-णील-काउलेस्सियतिरिक्ख-मणुससासणाणमेइंदिएसु मारणंतियं मेल्लमाणाणं सत्त चोद्दसभागा उवरि लम्भंति त्ति हेडिल्लखेत्तेहि सह वारसेक्कारस-णव-चोदसभागमेत्तखेत्तं किण्ण लब्भदे ? ण, तिरिक्ख-मणुसउवसमसम्माइट्ठीणं उवसमसम्मत्तकालभंतरे सुट्ट संकिलिट्ठाणं पि संजदासंजदाणं व किण्ह-णील-काउलेस्साओ ण होति ति गुरूवदेसंतरजाणावणहूँ तहाणुवदेसादो । देवेसु तिरिक्खगईए उबवण्णेसु उववादस्त एकारस-दसअट्ट-चोद्दसभागमेत्तखेत्तं किण्ण लब्भदे ? ण, किण्ह-णील-काउलेस्साहि सह अच्छिऊण पच्छा ताहि सह उववादाभावादो । ण च लेस्सा उववादसमाणकालभाविणी मग्गणा होइ, शंका-देवोंसे एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिकसमुद्धात करनेवाले जीवोंके सासादन गुणस्थानसम्बन्धी क्षेत्रके ग्रहण करनेपर पूर्वोक्त क्षेत्रके साथ यथाक्रमसे बारह बटे चौदह (१४) भाग, ग्यारह बटे चौदह (१) भाग, और नौ बटे चौदह (२४) भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र क्यों नहीं पाया जाता है ? समाधान-ऐसी शंका पर उत्तर देते हैं कि नहीं पाया जाता है, क्योंकि, देवोंके अपनी आयुके अन्तिम समय पर्यन्त अपनी पूर्ववर्ती तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याओंका विनाश नहीं होता है, इसलिए उक्त प्रकारका क्षेत्र नहीं कहा गया। __शंका-कृष्ण, नील और कापोत लेझ्यावाले तथा एकेन्द्रियों में मारणान्तिकसमुद्धात करनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्योंके सात बटे चौदह (४) भाग तो ऊपर स्पर्शनक्षेत्र पाया जाता है, इसलिए उसे अधस्तन उक्त क्षेत्रोंके साथ ग्रहण करने पर बारह बटे चौदह (१३) भाग, ग्यारह बटे चौदह (१४) भाग और नौ बटे चौदह (१४) भागप्रमाण क्षेत्र क्यों नहीं पाया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उपशमसम्यक्त्वकालके भीतर अत्यन्त संक्लेशको प्राप्त हुए भी तिर्यंच और मनुष्य उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके संयतासंयतोंके समान कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं नहीं होती हैं, इस प्रकारका एक दूसरा गुरुका उपदेश है, यह बात बतलाने के लिए वैसा उपदेश नहीं दिया है। शंका-तिर्यंचगतिमें उत्पन्न होने वाले देवों में उपपादपदका ग्यारह बटे चौदह, दश बटे चौदह और आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्र क्यों नहीं पाया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओंके साथ रहकर पीछे उन्हींके साथ उपपाद नहीं पाया जाता है। विशेषार्थ-देवों में तीनों अशुभलेश्याएं अपर्याप्तकाल में ही होती हैं। पीछे नियमसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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