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________________ २९० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १४५. केवलदसणी केवलणाणिभंगो ॥ १४५॥ एदं पि सुगमं । एवं दंसणमग्गणा समत्ता । लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सियमिच्छादिट्ठी ओघं ॥ १४६॥ जेण सत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादपरिणदेहि किण्हणील-काउलेस्सियमिच्छादिट्ठीहि तिसु वि कालेसु सव्वलोगो, विहारपरिणदेहि अदीद-वट्टमाणेण तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणो; वट्टमाणकाले वेउब्बियपरिणदेहि ( तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, ) तिरियलोयस्स संखेज दिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो; अदीदे पंच चोदसभागा पोसिदा; तेण ओघत्तं जुञ्जदे । विहार-वेउब्बियपदेसु देसूणट्ठ-चोदसभागपोसणखेत्ताभावा ओघत्तं ण घडदे इदि पच्चवट्ठाणं ण कायव्वं, सुत्ते पदविसेसाभावा । सबलोगत्तमेत्तेण सरिसत्तमालोविय ओघत्तुववत्तीए । केवलदर्शनी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र केवलज्ञानियों के समान है ॥ १४५ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। ___ इस प्रकार दर्शनमार्गणा समाप्त हुई। लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १४६ ॥ चूंकि स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंने तीनों ही कालोंमें सर्व लोक स्पर्श किया है। विहारवत्स्वस्थानपदपरिणत उक्त जीवोंने अतीत और वर्तमानकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असं. ख्यातराणा क्षेत्र स्पर्श किया है, तथा वर्तमानकालमें वैक्रियिकपदपरिणत उक्त जीवोंने (सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, ) तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है तथा अतीतकालमें उक्त जीवोंने पांच बटे चौदह (५) भाग स्पर्श किये हैं; इसलिए ओघपना बन जाता है। शंका-विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्धात, इन दो पदोंमें देशोन आठ बटे चौदह (१४) भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्रके अभाव होनेसे ओघपना घटित नहीं होता है ? समाधान-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, सूत्र में पदविशेषकी विवक्षाका अभाव है। सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रकी सदृशताको देखते हुए ओघपना बन जाता है । १ लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्यैर्मिध्यादृष्टिभिः सर्वलोकः स्पृष्टः । स. सि. १, ८, फासं सवं लोयं तिहाणे असुइलेस्साणं । गो. जी. ५४५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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