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________________ १, ५, १५८. ] कालानुगमे तसकाइयकालपरूवणं [ ४०७ तं जधा - एगो अण्णकायादो आगंतूण णिगोदेसुववष्णो । तत्थ अड्डाइज्जा पोग्गल परियाणि परियट्टिदूण अण्णकार्य गदो । बादरणिगोदजीवाणं बादरपुढविकाइयाणं भंगो ॥ १५६ ॥ कुदो ? णाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण कम्मट्ठिदी इच्चेएण बादरणिगोदाणं बादरपुढविकाइएहिंतो भेदाभावा । तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छादिट्टी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वा ॥ १५७ ॥ सुगममेदं सुतं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १५८ ॥ तसकाइयाणं तेसिं पत्ताणं च जहण्णकालो अंतोमुहुत्तं । तसकाइयाणमंतोमुडुत्तमिदि अभणिय खुद्दाभवग्गहणं ति किण्ण वृत्तं ? ण, खुद्दाभवग्गहणं पेक्खिदूण जहण्णमिच्छत्तकालस्स थोवत्तादो । सेसं मुगमं । जैसे - कोई एक जीव अन्य कायसे आ करके निगोदिया जीवोंमें उत्पन्न हुआ। वहां पर अढ़ाई पुद्गलपरिवर्तन काल तक परिभ्रमण करके अन्य कायको प्राप्त हो गया । बादरनिगोद जीवोंका काल बादरपृथिवीकायिक जीवोंके समान है ।। १५६ ॥ क्योंकि, नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल, एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण है, इस रूपसे बादरनिगोदिया जीवोंके कालका बादरपृथिवीकायिक जीवोंके काल से कोई भेद नहीं है । सकायिक और त्रसकायिकपर्याप्तकों में मिध्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। १५७ ॥ यह सूत्र सुगम है । एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १५८ ॥ सकायिक और उनके पर्याप्तकोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । शंका- 'सकायिक जीवोंका अन्तर्मुहूर्त काल है, ऐसा न कह कर ग्रहणप्रमाण काल है, ' ऐसा क्यों नहीं कहा ? क्षुद्रभव समाधान- नहीं, क्योंकि, क्षुद्रभवग्रहणके कालको देखकर अर्थात् उसकी अपेक्षा जघन्य मिथ्यात्वका काल और भी छोटा है । शेष सूत्रार्थ सुगम है । Jain Education International १ त्रसकायिकेषु मिथ्यादृष्टेन नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. २ एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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