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________________ १२२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, १९१. - तं जधा- देव-णेरइया मणुस्सा सत्तट्ठ जणा बहुआ वा सम्मादिट्ठिणो ओरालियमिस्सकायजोगिणो जादा । ते पज्जत्तिं गदा । तस्समए चेव अण्णे असंजदसम्मादिट्टिणो ओरालियमिस्सकायजोगिणो जादा । एवमेक-दो-तिण्णि जावुक्कस्सेण संखेज्जवारा त्ति । एदाहि संखेज्जसलागाहि एगमपज्जत्तद्धं गुणिदे एगमुहुत्तस्स अंतो चेव जेण होदि, तेण अंतोमुहुत्तमिदि वुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १९१ ॥ तं जधा-एको सम्मादिट्ठी वावीस सागरोवमाणि दुक्खेक्करसो होदूण जीविदो । छट्ठीदो उव्वट्टिय मणुसेसु उप्पण्णो । विग्गहगदीए तस्स सम्मत्तमाहप्पेण उववजिदपुण्णपोग्गलस्स ओरालियणामकम्मोदएण सुअंध-सुरस-सुवण्ण-सुहपासपरमाणुपोग्गलबहुला आगच्छंति', तस्स जोगबहुत्तदंसणादो। एदस्स जहणिया ओरालियमिस्सकायजोगस्स अद्धा होदि। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १९२ ॥ जैसे-देव, नारकी, अथवा मनुष्य सात आठ जन, अथवा बहुतसे सम्यग्दृष्टि जीव, औदारिकमिश्रकाययोगी हुए। वे सब पर्याप्तपनेको प्राप्त हुए। उसी समयमें ही अन्य असंयतसम्यग्दृष्टि जीव औदारिकमिश्रकाययोगी हुए । इस प्रकार एक, दो, तीन इत्यादि क्रमसे उत्कृष्ट संख्यातवार तक अन्य अन्य असंयतसम्यग्दृष्टि जीव मिश्रकाययोगी होते गये। इन संख्यात शलाकाओंसे एक अपर्याप्तकालको गुणित करने पर वह सब काल चूंकि एक मुहूर्तके अन्तर्गत ही होता है, इसलिए सूत्रकारने अन्तर्मुहूर्त काल कहा है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १९१ ॥ जैसे- छठी पृथिवीका कोई एक सम्यग्दृष्टि नारकी बाईस सागर तक दुखोंसे एक रस अर्थात् अत्यन्त पीड़ित होकर जीता रहा। पुनः छठी पृथिवीसे निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। विग्रहगतिमें, सम्यक्त्वके माहात्म्यसे उदयमें आये हैं पुण्यप्रकृतिके पुद्गलपरमाणु जिसके ऐसे उस जीवके औदारिकनामकर्मके उदयसे सुगन्धित, सुरस, सुवर्ण और शुभ स्पर्शवाले पुद्गलपरमाणु बहुलतासे आते हैं, क्योंकि, उस समय उसके योगकी बहुलता देखी आती है। ऐसे जीवके औदारिकमिश्रकाययोगका जघन्य काल होता है। एक जीवकी अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १९२ ॥ १ आ प्रतौ 'बहु आगच्छति ' इति पाठ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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