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________________ २८०) ' छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १२०. . कसायाणुवादेण कोधकसाइ-माणकसाइ-मायकसाइ-लोभकसाईसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अणियट्टि ति ओघं ॥ १२० ॥ . एदस्स सुत्तस्स अदीद-वट्टमाणकाले अस्सिदूण परूवणे कीरमाणे फोसणमूलोघादो ण केण वि असेण भिज्जदि ति ओघमिदि सुत्तवयणं सुट्ठ संबद्धं । तदो मूलोघपरूवणं सुड्ड संभालिय एत्थ सिस्साणं पडिबोहो कायव्यो । लोहगयविसेसाववोहणट्ठमुत्तरसुत्तं भण्णदेणवरि लोभकसाईसु सुहुमसांपराइयउवसमा खवा ओघं ॥१२१॥ कुदो ? ओघसुहुमसांपराइयउवसम-खवगेहिंतो एदेसिं विसेसाभावा । सो च विसेसाभावो सिस्साणं सण्णिदरिसेयव्यो। अकसाईसु चदुट्ठाणमोघं ॥ १२२ ॥ कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोमकषायी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १२०॥ __इस सूत्रकी अतीत और वर्तमानकालको आश्रय करके प्ररूपणा करनेपर स्पर्शनानुयोगद्वारकी मूल ओघप्ररूपणाले किसी भी अंशसे भेद नहीं है, इसलिए 'ओघ' ऐसा सूत्रवचन सुसम्बद्ध है। अतएव मूल ओघप्ररूपणाको भलेप्रकार संभाल करके यहांपर शिष्योंको प्रतिबोधित करना चाहिए। अब लोभकषायगत विशेषताके अवबोधनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं विशेष बात यह है कि लोमकषायी जीवोंमें सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानवती उप. शमक और क्षपक जीवोंका क्षेत्र ओघके समान है ॥ १२१ ॥ क्योंकि, ओघनिरूपित सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानवी उपशमक और क्षपकोंसे कषायमार्गणाकी दृष्टिसे प्ररूपित इन जीवोंके कोई विशेषता नहीं है। वह विशेषताका अभाव शिष्यों के लिए भलीभांति दिखाना चाहिए। अकषायी जीवोंमें उपशान्तकषाय आदि चार गुणस्थानवालोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १२२ ॥ १ कषायानुबादेन चतुष्कषायाणां सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १,८. २ अकषायाणां च सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १, ८, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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