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________________ १, ४, १२१.] फोसणाणुगमे मदि-सुदअण्णाणिफोसणपरूवणं [२८१ णामेगदेसग्गहणे वि णामिल्लसंपच्चओ होदि त्ति चदुट्ठाणसहेण वीदरागाणं चदुण्हं गुणट्ठाणाणं गहणं होदि । तेसिं परूवणा सुगमा, ओघसमाणत्तादो। __ एवं कसायमग्गणा समत्ता।। णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणीसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ १२३॥ जेण सत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादपरिणदमदि-सुदअण्णाणिमिच्छादिट्ठीहि तिसु वि कालेसु सबलोगो, विहार-वेउब्बियपरिणदेहि अट्ठ चोद्दसभागा फोसिदा, तेण ओघमिदि जुज्जदे । सासणसम्मादिट्ठी ओघं ॥ १२४ ॥ ओघो जेण अणेयपयारो मिच्छादिडिओघादिभेदेण, तेण कस्सोधस्स एत्थ गहणं होदि ति ण णव्वदे १ जेणोघेण सासणसम्मादिट्ठीणं पगरिसेण पञ्चासत्ती अत्थि, तस्सेव "किसी भी नामके एक देशके ग्रहण करनेपर भी नामवालोंका सम्प्रत्यय हो जाता है' इस न्यायके अनुसार 'चतुःस्थान' शब्दसे उपशान्तकषाय आदि वीतरागी चारों गुणस्थानोंका ग्रहण हो जाता है । उनके स्पर्शनकी प्ररूपणा ओघके समान होनेसे सुगम है। इसप्रकार कषायमार्गणा समाप्त हुई। ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १२३ ॥ चूंकि स्वस्थानखस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत मत्यशानी तथा श्रुताशानी मिथ्यादृष्टि जीवोंने तीनों ही कालों में सर्वलोक स्पर्श किया है, तथा विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्धातपदपरिणत जीवोंने आठ बटे चौदह (ट) भाग स्पर्श किये हैं, इसलिए सूत्रोक्त 'ओघ' यह वचन घटित हो जाता है।। ___उक्त दोनों प्रकारके अज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओधके समान है ॥ १२४ ॥ शंका-चूंकि, मिथ्यादृष्टि-ओघ, सासादनसम्यग्दृष्टि-ओघ, आदिके भेदसे मोघ अनेक प्रकारका है, इसलिए यहांपर किस ओघका ग्रहण किया जा रहा है, यह नहीं जाना जाता है ? समाधान -जिस ओघके साथ सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंकी प्रकर्षतासे प्रत्यासत्ति है, उसका ही ग्रहण यहांपर किया जा रहा है। १ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिना मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टीना सामान्योक्तं स्पर्शनम्। स.सि. १,५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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