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________________ १, ४, ११९.] फोसणाणुगमे णQसयवेदयफोसणपरूवणं [२७९ पमत्ते तेजाहाराभावादो ओघत्तं ण जुज्जदे ? ण, सुत्ते पदविवक्खाए विणा साम• ण्णणिदेसादो । सेसं चिंतिय वत्तव्यं । ___ अपगदवेदएसु अणियट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ ११८ ॥ एदस्स सुत्तस्स वट्टमाणादीदकालपरूवणा ओघादो ण भिज्जदि ति सुत्ते ओघमिदि भणिदं । सजोगिकेवली ओघं ॥ ११९ ॥ एगजोगो किण्ण कदो ? ण, पुव्यखेत्तेण सजोगिखेत्तस्स अदीद-वट्टमाणकालेसु तुल्लत्ताभावादो एगजोगत्ताणुववत्तीए । एदस्स वि सुत्तस्स अत्थो सुगमो ति ण किंचि बुच्चदे। एवं वेदमग्गणा समत्ता । शंका-प्रमत्त गुणस्थानमें नपुंसकवेदी जीवोंके तैजस और आहारकसमुद्धातका अभाव होनेसे सूत्रोक्त ओघपना नहीं घटित होता है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, सूत्रमें उक्त दोनों पदविशेषोंकी विवक्षाके विना सामान्य निर्देश किया गया है। शेष पदोंका स्पर्शनक्षेत्र विचार करके कहना चाहिए। अपगतवेदी जीवोंमें अनिवृत्तिकरण गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ ११८ ॥ ___ इस सूत्रकी वर्तमान और अतीतकालसम्बन्धी स्पर्शनप्ररूपणा ओघस्पर्शनप्ररूपणासे भिन्न नहीं है, इसलिए सूत्र में 'ओघ' यह पद कहा है। अपगतवेदी सयोगकेवली जिनोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ ११९॥ शंका-ऊपरके सूत्रका और इस सूत्रका, अर्थात् दोनों सूत्रोंका, एक योग (समास) क्यों नहीं किया ? ___ समाधान नहीं, क्योंकि, प्रमत्तसंयतादिके क्षेत्रसे सयोगिकेवलोके क्षेत्रके अतीत और वर्तमानकालमें समानताका अभाव होनेसे एकयोगपना नहीं बन सकता है। .. इस सूत्रका भी अर्थ सुगम है, इसलिए विशेष कुछ भी नहीं कहा जाता है। .. इसप्रकारसे वेदमार्गणा समाप्त हुई। १ अपगतवेदानां च सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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