SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 581
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६८] छक्खंडागमे जीवट्ठाण [१, ५, २९७. पम्मलेस्सं गंतूण विदियसमए उवरिमगुणट्ठाणं गच्छंताणं मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणं पम्मलेस्साए एगसमओ लब्भदि । हायमाणतेउलेस्साए एगसमओ अत्थि त्ति मिच्छादिट्ठिअसंजदसम्मादिद्विगुणट्ठाणे पडिवण्णाणं तेउलेस्साए एगसमओ लब्भदि । एवं काउ-णीललेस्साणं पि एगसमओ लब्भदि त्ति उत्ते ण लब्भदि, जदो मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीण एगसमयं लेस्साए परिणमिय विदियसमए अण्णगुणं लेस्संतरं वा ण गच्छंति । एदाणि गुणट्ठाणाणि पडिवज्जंता वि लेस्साए एगो समओ अत्थि त्ति ण पडिवज्जंति । कुदो ? सभावदो। हेट्ठिमगुणट्ठाणाणि लेस्साए एगो समओ अत्थि त्ति जहा संजमासंजमगुणद्वाणं पडिवज्जंति, पमत्तसंजदो तहा संजमासंजमगुणट्ठाणं किण्ण पडिवज्जदे ? सहावदो । अधवा णत्थि एत्थ पडिसेहो । पमत्तस्स उच्चदे- एक्को पमत्तो हायमाण-पम्मलेस्साए अच्छिदो । तिस्से अद्धाखएण पमत्तद्धाए एगो समओ अत्थि त्ति तेउलेस्सिओ जादो एगसमओ दिट्ठो। विदिय वर्धमान तेजोलेश्यासे पालेश्याको जाकर द्वितीय समयमें उपरिम गुणस्थानोंको जाने वाले मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पद्मलेश्याके साथ एक समय पाया जाता है। इसी प्रकार हायमान तेजोलेश्यामें एक समय अवशेष रहने पर मिथ्यादृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवोंके तेजोलेश्याके साथ एक समय पाया जाता है। - शंका-तेज और पद्मलेश्याके समान ही कापोत और नीललेश्याओंका भी एक समय पाया जाता है, (फिर उसे क्यों नहीं कहा ) ? समाधान-कापोत और नीललेश्याके साथ एक समय नहीं पाया जाता है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि जीव एक समयमें विवक्षित लेश्याके द्वारा परिणत होकर द्वितीय समयमें अन्य गुणस्थानको, अथवा अन्य लेश्याको नहीं जाते हैं। तथा इन गुणस्थानोंको प्राप्त होनेवाले भी जीव विवक्षित धारण की गई लेश्याके कालमें एक समय अवशिष्ट रहने पर उन उन गुणस्थानों को नहीं प्राप्त होते हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव ही है। शंका-अपनी लेश्यामें एक समय रहने पर जैसे नीचेके गुणस्थानवाले संयमासंयम गुणस्थानको प्राप्त होते हैं, उसी प्रकारसे प्रमत्तसंयत भी संयमासंयम गुणस्थानको क्यों नहीं प्राप्त होता है ? समाधान-ऐसा स्वभाव ही है । अथवा, इस विषयमें कोई प्रतिषेध नहीं है। अब प्रमत्तसंयतका काल कहते हैं- एक प्रमत्तसंयत हायमान पद्मलेश्यामें विद्यमान था। उस लेश्याके कालक्षयसे तथा प्रमत्तसंयत गुणस्थानके काल में एक समय अवशेष रहने पर वह तेजोलेश्यावाला होगया। एक समय वह तेजोलेश्याके साथ प्रमत्तसंयतके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy