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________________ १, ५, २९७.] कालाणुगमे तेउ-पम्मलेस्सियकालपरूवणं [१६५ असंजदसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी मिच्छादिट्ठी वा जादो। एसा गुणपरावत्ती (२)। मरण-वाघादेहि एगसमओ ण लब्भदि । संपदि पम्मलेस्साए उच्चदे । तं जधा- एगो मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्टी वा वड्डमाणपम्मलेस्सिओ पम्मलेस्सद्धाए एगो समओ अत्थि त्ति संजमासंजमं पडिवण्णो । विदियसमए संजमासंजमेण सह सुक्कलेस्सं गदो । एसा लेस्स्सापरावती (३)। अधवा वड्डमाणतेउलेस्सिओ संजदासंजदो तेउलेस्सद्धाए खएण पम्मलेस्सिओ जादो । एगसमयं पम्मलेस्साए सह संजमासंजमं दिटुं, विदियसमए अप्पमत्तो जादो। एसा गुणपरावत्ती। अधवा संजदासजदा हायमाणसुक्कलेस्सिओ सुक्कलेस्सद्धाखएण पम्मलेस्सिओ जादो । विदियसमए पम्मलेस्सिओ चेव, किंतु असंजदसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी मिच्छादिट्ठी वा जादो । एसा गुणपरा. वत्ती (४)। मिच्छादिहि-असंजदसम्मादिद्विगुणट्ठाणेसु तेउ-पम्मलेस्साणं लेस्सा-गुणपरावत्तीओ अस्सिदूण एगसमओ किण्ण उच्चदे ? ण, तत्थ एगसमयसंभवाभावा । वड्डमाणतेउलेस्सादो हुआ। द्वितीय समयमें उसी लेश्याके साथ असंयतसम्यग्दृष्टि, या सम्यग्मिथ्याष्टि, या सासादनसम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि हो गया। यह गुणस्थानपरिवर्तनके द्वारा एक समयकी प्ररूपणा हुई (२)। यहां पर मरण और व्याघातके द्वारा एक समय नहीं पाया आता है। अब पद्मलेश्याके एक समयकी प्ररूपणा कहते हैं। जैसे- वर्धमान पद्मलेश्यावाला कोई एक मिथ्यादृष्टि, अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि जीव, पद्मलेश्याके काल में एक समय अवशेष रहने पर संयमासंयमको प्राप्त हुआ। द्वितीय समयमें संयमासंयमके साथ ही शुक्ललेश्याको प्राप्त हुआ। यह लेश्यापरावर्तनसम्बन्धी एक समयकी प्ररूपणा हुई (३) । अथवा, वर्धमान तेजोलेश्यावाला कोई संयतासंयत तेजोलेश्याके कालके क्षय हो जानेसे पद्मलेश्यावाला हो गया । एक समय पनलेश्याके साथ संयमासंयम दृष्टिगोचर हुआ। और वह द्वितीय समयमें अप्रमत्तसंयत हो गया। यह गुणस्थानपरिवर्तनकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा हुई। अथवा, हायमान शुक्ललेश्यावाला कोई संयतासंयत जीव शुक्ललेश्याके कालके पूरे हो जाने पर पद्मलेश्यावाला हो गया। द्वितीय समयमें वह पद्मलेश्यावाला ही है, किन्तु असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा सासादनसम्यग्दृष्टि, अथवा मिथ्यादृष्टि हो गया। यह गुणस्थानपरिवर्तनकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा हुई (४)। शंका-मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि, इन दो गुणस्थानोंमें तेज और पन. लेश्यावाले जीवोंकी लेश्या और गुणस्थानसम्बन्धी परिवर्तनोंको आश्रय करके एक समयकी प्ररूपणा क्यों नहीं कही? ___ समाधान नहीं, क्योंकि, इन गुणस्थानोंमें एक समयकी प्ररुपणाका होना संभव नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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