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________________ ३४०] छक्खंडांगमे जीवट्ठाणं ... उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागों ॥६॥ दोणि वा तिण्णि वा एवं एगुत्तरवड्डीए जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता वा उवसमसम्मादिट्ठिणो एगसमयमादि कादूण जावुक्कस्सेण छ आवलियाओ उवसमसम्मत्तद्धाए अत्थि त्ति सासणत्तं पडिवण्णा। जाव ते मिच्छत्तं ण गच्छंति ताव अण्णे वि अण्णे वि उवसमसम्मादिद्विणो सासणतं पडिवज्जति । एवं गिम्हकालरुक्खछाहीव उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तं कालं जीवेहि असुण्णं होदूण सासणगुणट्ठाण लब्भदि । केवडिओ सो पुण कालो ? सगरासीदो असंखेज्जगुणो । तं जहा- सासणगुणस्स णिरंतरुवक्कमणकालो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो । सांतरुवक्कमणवारा पुण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता । एवं होति त्ति कट्ट सासणुक्कस्सकालुप्पत्तिविहाणं वुच्चदे । तं जधा- एगस्स सासणगुणट्ठाणुवक्कमणवारस्स जदि मज्झिमपडिवत्तीए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो सासणगुणकालो लब्भदि, संखेज्जावलियमेत्तो वा, आवलियाए संखेज्जदिभागमेत्तो वा, तो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तउवक्कमणवाराणं सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥ ६ ॥ दो, अथवा तीन, अथवा चार, इस प्रकार एक एक अधिक वृद्धिद्वारा पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र तक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव एक समयको आदि करके उत्कर्षसे छह आधलियां उपशमसम्यक्त्वके कालमें अवशिष्ट रहनेपर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुए । वे जब तक मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं होते हैं, तबतक अन्य अन्य भी उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादनगुणस्थानको प्राप्त होते रहते हैं। इस प्रकारसे ग्रीष्मकाल के वृक्षकी छायाके समान उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र कालतक जीवोंसे अशून्य (परिपूर्ण ) होकर, सासादनगुणस्थान पाया जाता है। शंका-सो वह काल कितना है ? समाधान-अपनी, अर्थात् सासादनगुणस्थानवी, राशिसे असंख्यातगुणा है। वह इस प्रकार है-- सासादनगुणस्थान के निरन्तर उपक्रमणका काल आवलीके असंख्यातवें भागमात्र है। किन्तु सान्तर उपक्रमणके वार तो पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र हैं। ये वार इस प्रकार होते हैं, ऐसा मानकर सासादनगुणस्थानके उत्कृष्टकालकी उत्पत्तिका विधान कहते हैं । वह इस प्रकार है ___ एक जीवके सासादनगुणस्थानके उपक्रमणवारका यदि मध्यम प्रतिपत्तिसे आवलीके असंख्यातवें भागमात्र सासादनगुणस्थानका काल पाया जाता है, अथवा, संख्यात आवली मात्र, अथवा आवलीके संख्यातवें भागमात्र काल पाया जाता है; तो पल्योपमके असंख्यातवें १ उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागः । स. सि. १, 4. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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