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________________ १, ५, १३५.] कालाणुगमे पंचिंदियकालपरूवणं [३२९ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १३३ ॥ एदं पि सुगम चेव । णवरि वीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदियअपज्जत्ताणं जहाकमेण अंतरविरहिया असीदि-सद्वि-चालीसअपज्जत्तभवा । जदि वि एत्तियवारमेगो जीवो तत्थतणुक्कस्सहिदीए उप्पज्जदि, तो वि तब्भवद्विदिकालसमासो अंतोमुहुत्तमेत्तो चेव । कधमेदं णव्वदे ? अंतोमुहुन्नुवदेसण्णहाणुववत्तीदो। पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १३४ ॥ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १३५॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो जधा मूलोघम्हि मिच्छत्तस्स जहण्णकालपरूवणासुत्तस्स वुत्तो तधा वत्तव्यो । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १३३ ॥ यह सूत्र भी सुगम ही है। विशेष बात यह है कि द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके यथाक्रमसे अन्तररहित होकर अस्सी, साठ और चालीस लब्ध्यपर्याप्तक भव होते हैं । यद्यपि इतने बार एक जीव उनकी उत्कृष्ट स्थिति उत्पन्न, होता है, तो भी उनकी भवस्थितिके कालका जोड़ अन्तर्मुहूर्तमात्र ही होता है। शंका-यह कैसे जानते है ? समाधान- अन्यथा, सूत्रमें अन्तर्मुहूर्तका उपदेश हो नहीं सकता था। इस अन्यथानुपपत्तिसे जानते हैं कि उन भवोंका जोड़ अन्तर्मुहूर्तमात्र ही होता है। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १३४॥ ... यह सूत्र सुगम है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है ॥ १३६ ॥ इस सूत्रका अर्थ जैसा कालप्ररूपणाके मूलोघमें मिथ्यात्वके जघन्य कालकी प्ररूपणा करनेवाले सूत्रका कहा है, वैसा ही यहां कहना चाहिए । १ प्रतिषु 'वीओ' इति पाठः। २ पंचेन्द्रियेषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः। स. सि. १,८. ३ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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