SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 511
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९८ ] क्खडागमे जीवाणं [ १, ५, १३१. या वारस वासा। जदो एवं, तदो संखेजाणि वाससहस्साणि त्तिण घडदे ? ण एस दोस्रो, दाओ गाउट्ठदीओ । एदाहि ण एत्थ कज्जमत्थि, भवद्विदीए अहियारादो । का भवट्ठिदी णाम ? आउडिदिसमूहो । जदि एवं, तो असंखेज्जाणि वाससहस्साणि भवद्विदी किण्ण होदि ? ण एस दोसो, असंखेज्जवारं संखेज्जवाससहस्सविरोहि संखेज्जवारं वा तत्थुपत्तीए संभवाभावा । अणपिदिदिएहिंतो आगंतूग अप्पिदिदिएसु उपज्जिय संखेज्जाणि चैव हिंडदि, असंखेज्जाणि ण परिभ्रमदित्ति वृत्तं होदि । बीइंदिय - तीइंदिय - चउरिंदिया अपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा ॥ १३१ ॥ उवदेसेण विणा एदस्स सुत्तस्स अत्थो णव्वदे | एगजीवं पच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १३२ ॥ सुगममेदं सुतं । जीवोंकी छह मास और द्वीन्द्रिय जीवोंकी बारह वर्ष उत्कृष्ट आयुस्थिति होती है । शंका- यदि ऐसा है, तो सूत्र में कही गई संख्यात हजार वर्षों की स्थिति नहीं घटित होती है समाधान- - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, बतलाई गई स्थितियां एक आयुसम्बन्धी हैं, इनसे यहां पर कोई कार्य नहीं है । किन्तु यहां पर भवस्थितिका अधिकार है । शंका - भवस्थिति किसे कहते है ? समाधान - अनेक आयुस्थितियोंके समूहको भवस्थिति कहते हैं । शंका- यदि ऐसा है, तो असंख्यात हजार वर्षप्रमाण भवस्थिति क्यों नहीं होती है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, असंख्यातवार, अथवा संख्यात वर्षसहस्रके विरोधी संख्यातवार भी उनमें उत्पत्ति होनेकी संभावनाका अभाव है । अविवक्षित इन्द्रियवाले जीवोंसे आ करके विवक्षित इन्द्रियवाले जीवों में उत्पन्न होकर, संख्यातसहस्र वर्ष ही भ्रमण करता है, असंख्यातवर्ष भ्रमण नहीं करता है, ऐसा अर्थ कहा हुआ समझना चाहिए । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १३१ ॥ उपदेशके विना ही इस सूत्रका अर्थ ज्ञात है । एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥ १३२॥ यह सूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy