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________________ १, ३, २. ] खेत्तानुगमे लोगावगाहणसत्तिपरूवणं [ २५ ओरालिय-तेजा- कम्मइयविस्ससोवचयाणं पादेकं सव्वजीवेहि अनंतगुणाणं पडिपरमाणुम्हि तत्तियमेत्ताणं तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि । एवमेगजीवेणच्छिद अंगुलस्स असंखेजदिभागमेत्ते जहणखेत्तम्हि समाणो गाणो होदून विदिओ जीवो तत्थैव अच्छदि । एवमणंताणंताणं समाणोगाहणाणं जीवाणं तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि । तदो अवरो जीवो हि चेव मज्झिमपदेसमंतिमं काऊण उववण्णो । एदस्स वि ओगाहणाए अनंतापंतजीवा समाणोगाहणा अच्छंति त्ति पुव्वं व परूवेदव्वं । एवमेगेगपदेसा सव्वदिसासु चढावेदव्वा जाव लोगो आवुण्णो ति । एत्थ एक्केकोगाहणाए ठिदजीवाणमप्पा बहुगं भणिस्साम । तं जहा -- तेउक्काइया जीवा असंखेजा लोगा । तत्तो पुढविकाइया विसेसाहिया । आउकाइया जीवा विसेसाहिया । वाउक्काइया जीवा विसेसाहिया । तत्तो वणफदिकाइया अणंतगुणा ति । अणेण पयारेण सव्वजीवरासिणा लोगो आवुण्णो त्ति दहेदव्वं, अण्णा पुव्युत्तदोसप्पसंगादो । अवगाहना होती है । पुनः औदारिकशरीर, तैजस्कशरीर और कार्मणशरीर के विस्रसोपचयका, जो कि प्रत्येक सर्व जीवोंसे अनन्तगुणे हैं, और प्रत्येक परमाणुपर उतने ही प्रमाण हैं, उनकी भी उसी ही क्षेत्र में अवगाहना होती है । इसप्रकार एक जीवसे व्याप्त अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र उसी जघन्य क्षेत्र में समान अवगाहनावाला होकरके दूसरा जीव भी रहता है । इसीप्रकार समान अवगाहन वाले अनन्तानन्त जीवोंकी उसी ही क्षेत्र में अवगाहना होती है । तत्पश्चात् दूसरा कोई जीव, उसी ही क्षेत्रमें उसके मध्यवर्ती प्रदेशको अपनी अवगाहनाका अन्तिम प्रदेश करके उत्पन्न हुआ । इस जीवकी भी अवगाहनामें, समान अवगाहनावाले अनन्तानन्त जीव रहते हैं, इसप्रकार यहां भी पूर्वके समान प्ररूपण करना चाहिये । अर्थात्, उस क्षेत्र में स्थित घनलोकमात्र जीवके प्रदेशों में से प्रत्येक प्रदेशपर अनन्त औदारिकशरीरके परमाणु, औदारिकशरीर से अनन्तगुणे तैजस्कशरीर के और इससे अनन्तगुणे कार्मणशरीर के परमाणु भी हैं। पुनः इन तीनों शरीरोंके सर्व जीवोंसे अनन्त गुणित वित्रसोपचय भी उसी प्रदेशपर विद्यमान हैं। इसप्रकार समान अवगाहनावाले अनन्तानन्त जीव उसी क्षेत्र में रहते हैं । इसप्रकार से लोकके परिपूर्ण होनेतक सभी दिशाओं में लोकका एक एक प्रदेश बढ़ाते जाना चाहिये | अब यहां पर उत्सेध घनांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण एक एक अवगाहनामें स्थित जीवोंका अल्पबहुत्व कहते हैं । वह इसप्रकार है- तैजस्कायिक जीव असंख्यात लोकप्रमाण हैं । तैजस्कायिक जीवोंसे पृथिवीकायिक जीव विशेष अधिक हैं। पृथिवीकायिक जीवोंसे जलकायिक जीव विशेष अधिक हैं । जलकायिक जीवोंसे वायुकायिक जीव विशेष अधिक हैं । वायुकायिक जीवोंसे वनस्पतिकायिक जीव अनन्तगुणे हैं । इसप्रकार से सर्व जीवराशिके द्वारा यह लोकाकाश परिपूर्ण है, ऐसा श्रद्धान करना चाहिए, अन्यथा पूर्वोक्त दोषोंका प्रसंग प्राप्त होता है । १ जीवादी णंतगुणा पडिपरमाणुम्हि विस्ससेोवचया । जीवेण य समवेदा एक्केकं पडि सभाणा हु ॥ गो. जी. २४९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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