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१, ३, ५५. ]
खेत्ताणुगमे णाणमग्गणाखेत्तपरूवणं समुग्घादगदा एवं चेव । णवरि तिरियलोगादो असंखेज्जगुणे त्ति वत्तव्यं । उववादपदं णत्थि । सासणसम्मादिही सव्धेहि वि पदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइजादो असंखेज्जगुणे । एत्थ वि उववादो णस्थि ।
आभिाणबोहिय-सुद-ओहिणाणीसु असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेजदि. भागे ॥५४॥
एदं सुत्तं वुत्तत्थमिदि पुणो ण एदस्स अत्थो वुच्चदे।
मणपज्जवणाणीसु पमत्तसंजदप्पहाडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ५५॥
समाधान-चूंकि, यहां पर पर्याप्त देवराशिकी प्रधानता है, इसलिए स्वस्थानादि पदोंको प्राप्त वे देव तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमे रहते हैं।
मारणान्तिकसमुद्धातगत विभंगज्ञानियोंका क्षेत्र भी इसी प्रकार ही है। विशेषता केवल इतनी कहना चाहिए कि वे तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवोंके उपपादपद नहीं होता है, (क्योंकि, पर्याप्तावस्थामें ही विभंगज्ञान उत्पन्न होता है) । विभंगशानी सासादनसम्यग्दृष्टि जीव स्वस्थानादि सभी संभव पदोंकी अपेक्षा सामान्यलोक आदि चारों लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। यहांपर भी उपपाद पद नहीं है । (कारण भी उपर्युक्त ही समझना चाहिए)।
__ आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ५४॥
इस सूत्रका अर्थ पहले कह दिया गया है, इसलिए पुनः इसका अर्थ नहीं कहते हैं। __ मनःपर्ययज्ञानियोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछमस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥५५॥
१ आभिनिबोधिकश्रुतावधिज्ञानिनामसंयतसम्यग्दृष्टयार्दाना क्षीणकषायान्तानां xxx सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,८.
२xx मनःपर्य यज्ञानिनां च प्रमचादीनां क्षीणकषायान्तानxx सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,८.
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