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________________ १२०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, ५६, किमहं एदेसु तीसु सुत्तेसु पञ्जयणयदेसणा ? बहूर्ण जीवाणमणुग्गहढे । दव्वढि--- एहितो पज्जवल्लियजीवाणं बहुत्तं कधमवगम्मदे ? ण, संगहरुइजीहितो बहूणं वित्थररुइजीवाणमुवलंभादो । सेसमवगदहूँ । केवलणाणीसु सजोगिकेवली ओघं ॥ ५६॥ एत्थ किमह दव्वट्ठियणओ अवलंविदो? ण, पज्जवडियणयावलंबणे कारणाभावा । पज्जवट्ठियणओ अवलंबिञ्जदे विसेसपदुप्पायणटुं, ण च एत्थ को वि विसेसो अस्थि । ण च पुव्वसुत्तेहि वियहिचारो, पादेकं गुणहाणेसु तत्थ णाणभेदोवलंभादो । सेसं सुगम ।। अजोगिकेवली ओघं ॥ ५७ ॥ एसो णवसु पदेसु कत्थ वढदे ? सेसपदसंभवाभावादो सत्थाणे पदे । शंका-इन अभी कहे गए तीनों सूत्रोंमें पर्यायार्थिकनयका उपदेश किस लिए दिया गया है? समाधान - बहुतसे जीवों के अनुग्रह करने के लिए पर्यायार्थिकनयका उपदेश दिया गया है। शंका-द्रव्यार्थिकनयी जीवोंसे पर्यायार्थिंकनयघाले जीव बहुत हैं, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, संक्षेपरुचियाले जीवोंसे विस्ताररुचिवाले जीव बहुत पाये जाते हैं। शेष सूत्रका अर्थ तो अवगत ही है। केवलज्ञानियोंमें सयोगिकेवलीका क्षेत्र ओघक्षेत्रके समान है ॥ ५६ ॥ शंका- इस सूत्रमें किसलिए द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन किया गया है ! समाधान - नहीं, क्योंकि, पर्यायार्थिकनयके अवलम्बन करनेका यहां कोई कारण नहीं है। पर्यायार्थिकनयका अवलम्बन विशेष प्रतिपादनके लिए किया जाता है। किन्तु महांपर कोई भी विशेषता नहीं है, (जिसके कि बतलानेके लिए पर्यायार्थिकनयका अयलम्बन किया जाय)। और न यहांपर पूर्व सूत्रसे (जा कि पर्यायाथिकनयी है) व्यभिचार दोष ही आता है, क्योंकि, इन गुणस्थानों से प्रत्येक गुणस्थानमें शानभेद पाया जाता है। शेष सूत्रका अर्थ सुगम है। अयोगिकेवली भगवान् ओघके समान लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥५७॥ शंका-ये अयोगिकेवली भगवान् स्वस्थानादि नौ पदोंमेंसे किस पदमें रहते हैं ? समाधान-अयोगिकेवलीके विहारवत्स्वस्थानादि शेष अशेष पद संभव न होनेसे घे स्वस्थानस्वस्थान पदमें रहते हैं। १xx केवलज्ञानिना सयोगाना - सामान्योक्त क्षेत्रम् । स. सि. १, ८. २xx केवलशानिनी x अयोगानां च सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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