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________________ १, ३, ५८.] खेत्ताणुगमे संजममग्गणाखेत्तपरूवणं [ १२१ उप्पण्णपदेसो घरं गामो देसो वा सत्थाणं, तस्स वि उवयारदसणादो। ण च ममेदंबुद्धीए पडिगहिदपदेसो सत्थाणं, अजोगिम्हि खीणमोहम्हि ममेदंबुद्धीए अभावादो ति ? ण एस दोसो, वीदरागाणं अप्पणो अच्छिदपदेसस्सेव सत्थाणववएसादो । ण सरागाणमेस जाओ, तत्थ ममेदंभावसंभवादो । अधवा एस चेव णाओ सव्वत्थ घेप्पउ, विरोहाभावादो । जदि एवं सत्थाणस्स अत्थो वुच्चदि, तो सासणसत्थाणफोसणस्स अट्ठ चोद्दसभागा पावंति त्ति चे ण, फोसणे ममेदंबुद्धिपडिगहिदस्स सस्सामिसंबंधेण वारिदस्स चेव सत्थाणववदेसादो। सेसं सुगमं । ___ एवं णाणमग्गण्णा समत्ता। संजमाणुवादेण संजदेसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवली ओघं ॥ ५८ ॥ __ शंका-अपने उत्पन्न होनेके प्रदेश, घर, ग्राम अथवा देशको स्वस्थान कहते हैं। इस प्रकारका यह स्वस्थानपद भी अयोगिकेवलीमें केवल उपचारसे ही देखा जाता है, (न कि यथार्थतः)। तथा 'यह मेरा है' इस प्रकारकी बुद्धिसे प्रतिगृहीत प्रदेशको स्वस्थान कहते हैं, किन्तु क्षीणमोही अयोगी भगवान्में ममेदबुद्धिका अभाव है, इसलिए (किसी भी प्रकारसे) अयोगिकेवलीके स्वस्थानपद नहीं बनता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, वीतरागियोंके अपने रहनेके प्रदेशको ही स्वस्थान नामसे कहा गया है। किन्तु सरागियोंके लिए यह न्याय नहीं है, क्योंकि, इनमें ममेदभाव संभव है। अथवा, 'अपने रहनेके प्रदेशको स्वस्थान कहते हैं। यही न्याय सर्वत्र ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, उसके मानने में कोई विरोध नहीं है। शंका- यदि इस प्रकार स्वस्थानका अर्थ कहते हैं, तो सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके स्वस्थानस्वस्थानपदके स्पर्शनका क्षेत्र आठ बटे चौदह र राजु प्रमाण प्राप्त होता है, (जो कि आगे स्पर्शनानुयोगद्वार में बताया नहीं गया है ) ? ___ समाधान-नहीं, क्योंकि, स्पर्शनानुयोगद्वारमें, ममेदबुद्धिसे प्रतिगृहीत और अपने स्वामित्वके सम्बन्धसे रोके हुए क्षेत्रको ही स्वस्थान संज्ञा प्राप्त है। शेष सूत्रका अर्थ सुगम ही है। इस प्रकार शानमार्गणा समाप्त हुई। संयममार्गणाके अनुवादसे संयतोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती संयत जीव ओघके समान लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ५८ ॥ १ संयमानुवादेन xxx संयतानां सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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