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________________ ११८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, ५२. संभवादो । सेसं पुव्वं पदुप्पादिदमिदि पुव्वुत्तट्ठावधारिदसिस्साणुरोहेण ण वुच्चदे । सासणसम्मादिट्ठी ओघं ॥ ५२ ॥ एत्थ पुनसुत्तादो मदि-सुदअण्णाणीसु त्ति अणुवट्टदे ? कधं णिच्चेयणस्स खणखइणो सदस्स अविणहरूवेण अणुवत्ती ? ण एस दोसो, एदस्त सुनस्स अवयवभावेण द्विदअण्णसहस्स पुवसदेण समाणत्तमवेक्खिय सो चैव एसो इदि पच्चयहिण्णाणपच्चयणिमित्तस्स अणुवत्तिविरोहाभावादो। सेसो गदह्यो । विभंगण्णाणीसु मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ५३॥ एदस्सत्थो- विभंगगाणी मिच्छाइट्ठी सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयणकसाय-वेउब्वियसमुग्घादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो एदं ? पहाणीकदपज्जत्तदेवरासित्तादो। मारणंतिय ताज्ञानी पाये जाते हैं। शेष व्याख्यान पहले कर आए हैं, अतः पूर्वोक्त अर्थ के अवधारण करनेवाले शिष्यों के अनुरोधसे पुनः नहीं कहते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियोंका क्षेत्र ओघसासादनसम्यग्दृष्टिके समान लोकका असंख्यातवां भाग है ॥५२॥ यहां पर पूर्वसूत्रसे ' मति-श्रुताशानियोंमें ' इतने पदकी अनुवृत्ति होती है। शंका- अचेतन और क्षण-क्षयी शब्दकी अविनष्टरूपसे अनुवृत्ति कैसे हो सकती है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, इस सूत्रके अवयवरूपसे स्थित अन्य शब्दकी पूर्व शब्दके साथ समानता देखकर 'यह वही है' इस प्रकारके प्रत्यभिज्ञानकी प्रतीतिके निमित्तभूत शब्दकी अनुवृत्ति होने में कोई विरोध नहीं है। शेष सूत्रका अर्थ पहले किया जा चुका है। विभंगज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ५३॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपले असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। शंका-स्वस्थानादि पदगत विभंगवानी मिथ्यादृष्टि तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें क्यों रहते हैं ? १ विभङ्गलानिना मिथ्याष्टिसासादनसम्यग्दष्टिना लोकस्यासंख्येयभागः । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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