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________________ १, ५, १०६.] कालाणुगमे देवकालपरूवणं [३८७ कुदो ? गुणंतरं संकंतीए अभावादो । एत्थ सादिरेयपमाणमेगो समओ, हेडिल्लुकिस्सहिदी समयाहिया उवरिल्लाणं जहण्णहिदी होदि त्ति आइरियपरंपरागदुवदेसादो। उकस्सेण वत्तीस, तेत्तीस सागरोवमाणि ॥ १०४॥ __णवसु हेद्विमेसु अणुदिसविमाणेसु वत्ती सागरोवमाणि । चदुसु अणुत्तरविमाणेसु तेत्तीसं सागरोवमाणि संपुण्णाणि, सुत्ते हि ऊणाहियवयणाभावा । सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवेसु असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १०५ ॥ तिसु वि कालेसु तत्थ असंजदसम्मादिविविरहाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि ॥१०६॥ पुध सुत्तारंभादो चेव णव्यदे सबट्ठसिद्धिम्हि जहण्णुक्कस्सहिदी सरिसा ति । पुणो जहण्णुक्कस्सगहणं किमहूँ कीरदे ? ण तस्स मंदबुद्धिजणाणुग्गहद्वत्तादो । एवं गदिमग्गणा समत्ता । क्योंकि, इन विमानोंमें अन्य गुणस्थानके संक्रमणका अभाव है। यहां पर सातिरेक (साधिक) का प्रमाण एक समय है, क्योंकि, एक समय अधिक नीचे के विमानकी उत्कृष्ट स्थिति ही ऊपरके विमानकी जघन्य स्थिति होती है, ऐसा आचार्य-परम्परागत उपदेशसे जाना जाता है। उक्त विमानोंमें उत्कृष्ट काल यथाक्रमसे बत्तीस सागरोपम और तेतीस सागरोपम है ॥ १०४॥ अधस्तन नौ अनुदिश विमानों में पूरे बत्तीस सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट काल है। चारों अनुसरविमानोंमें पूरे तेत्तीस सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट काल है, क्योंकि, सूत्र में हीन और अधिकताके प्रतिपादक वचनका अभाव है। ___ सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि देव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥१०५॥ क्योंकि, तीनों ही कालोंमें वहां, अर्थात् सर्वार्थसिद्धि में, असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंके विरहका अभाव है। सर्वार्थसिद्धि में एक जीवकी अपेक्षा जघन्य तथा उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है ॥ १०६॥ शंका-पृथक् सूत्रके आरम्भसे ही जाना जाता है कि सर्वार्थसिद्धि में जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति सदृश है। फिर भी सूत्रमें जघन्य और उत्कृष्ट पदका ग्रहण किस लिए किया ? समाधान -नहीं, क्योंकि, उस पदका ग्रहण मन्दबुद्धि जनोंके अनुग्रहके लिए किया गया है। इस प्रकार गतिमार्गणा समाप्त हुई । १ अ-कपत्योः मंदबुद्धिजहण्णाणु-' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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