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________________ ३८६ ] छक्खंडागमे जीवाणं दस्त सुत्तस्स अत्थो सुगमो, बहुसो परुविदत्तादो । उक्कस्सेण वीसं वावीसं तेवीसं चउवीसं पणवीसं छब्वीसं सत्तावीसं अट्ठावीसं एगूणतीसं तीसं एक्कत्तीसं सागरोवमाणि ॥ १०० ॥ एदेसु एक्कारससु उक्कस्साउअं बंधिय अष्पष्पणो देवेसुप्पज्जिय आउट्ठदिमणुपालिय मणुसे सुप्पण्णमिच्छादिट्ठि असंजदसम्म दिडीणमध्पष्पणो वुत्तुक्कस्सकालुवलंभा । सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्टी ओघं ॥ १०१ ॥ ओघादो णाणेगजीवं पडुच्च भेदाभावा । अणुद्दिस - अणुत्तरविजय- वइजयंत जयंत अवराजिदविमाणवासिय देवसु असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ।। १०२ ॥ कुद : असंजदसम्मादिट्ठिविरहिदतेरसहं विमाणाणं सव्वकालमणुवलंभा । एगजीवं पहुच जहणेण एक्कत्तीसं, बत्तीसं सागरोवमाणि सादिरयाणि ॥ १०३ ॥ [ १, ५, १००० इस सूत्र का अर्थ सुगम है, क्योंकि, बहुतवार पहले प्ररूपण किया जा चुका है । उक्त कल्पवासी देवोंका उत्कृष्ट काल यथाक्रमसे बीस, वाईस, तेईस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस सागरोपम है ॥ १०० ॥ इन सूत्रोक्त आरण-अच्युतादि ग्यारह कल्पोंमें उत्कृष्ट आयुको बांधकर और देवों में उत्पन्न होकर, अपनी अपनी आयुस्थितिको परिपालन करके मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपने अपने कल्पका कहा गया उत्कृष्ट काल पाया जाता है । उक्त ग्यारह कल्पों में सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंका काल ओके समान है ॥ १०१ ॥ क्योंकि, ओघसे नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा इनके काल में कोई भेद नहीं है । अनुदिश विमानवासी देवोंमें तथा अनुत्तरनामक विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानवासी देवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि देव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल होते हैं ॥ १०२ ॥ क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंसे विरहित उक्त तेरह विमान किसी भी कालमें नहीं पाये जाते हैं । नौ अनुदिश विमानोंमें एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल सातिरेक इकतीस सागरोपम और चार अनुत्तर विमानों में साधिक बत्तीस सागरोपम है ॥ १०३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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