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________________ १, ५, ९९.] कालाणुगमे देवकालपरूवणं सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ९७ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्यो सुगमो, बहुसो परूविदत्तादो । आणद जाव णवगेवज्जविमाणवासियदेवेसु मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो हॉति, णाणाजीवं पडुच्च सम्बद्धा ॥९८॥ कुदो ? एदेसु मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिडिविरहिदकालाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ९९ ॥ विशेषार्थ-यहां पर जो बद्ध-आयुघातकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि देवोंके दो प्रकारके कालकी प्ररूपणा की है, उसका अभिप्राय यह है कि किसी मनुष्यने अपनी संयम-अवस्थामें देवायुका बंध किया। पीछे उसने संक्लेश परिमाणों के निमित्तसे संयमकी विराधना कर दी और इसीलिए अपवर्तनाघातके द्वारा आयुका घात भी कर दिया। संयमकी विराधना कर देने पर भी यदि वह सम्यग्दृष्टि है, तो मर कर जिस कल्पमें उत्पन्न होगा, वहांकी साधारणतः निश्चित आयसे अन्तर्महर्त कम अर्ध सागरोपमप्रमाण अधिक आयुका धारक होगा। कल्पना कीजिए- किसी मनुष्यने संयत अवस्थामें अच्युतकल्पमें संभव बाईस सागरप्रमाण आयुका बंध किया। पीछे संयमकी विराधना और बांधी हुई मायुकी अपवर्तना कर असंयतसम्यग्दृष्टि हो गया। पीछे मरण कर यदि सहस्रारकल्पमें उत्पन्न हुआ, तो वहांकी साधारण आयु जो अठारह सागरकी है, उससे घातायुष्क सम्यग्दृष्टि देवकी आयु अन्तर्मुहूर्त कम आधा सागर अधिक होगी। यदि वही पुरुष संयमकी विरा. धनाके साथ ही सम्यक्त्वकी भी विराधना कर मिथ्यादृष्टि हो जाता है और पीछे मरण कर उसी सहस्रारकल्पमें उत्पन्न होता है, तो उसकी आयु वहां की निश्चित अठारह सागरकी आयुसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक होगी। ऐसे जीवको घातायुष्क मिथ्यादृष्टि कहते हैं। _भवनवासीसे लेकर सहस्रारकल्प तकके सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंका काल ओघके समान है ॥ ९७॥ आनत-प्राणतकल्पसे लेकर नव ग्रैवेयक विमानवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ९८॥ क्योंकि, इन कल्पोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंसे रहित कालका अभाव है। . एक जीवकी अपेक्षा उक्त दोनों गुणस्थानवती देवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ९९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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