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________________ ३८४ ] क्खंडागमे जीवाणं [ १, ५, ९६. होदि । ' वे सत्त दस' चोदस सोलसङ्कारस य वीस वावीसा' एदीए गाहाए सह एदस्स सुत्तस्स किण्ण विरोहो होदि ? ण होदि विरोहो, भिण्णविसयत्तादो । तं जहा- बुतं सुतं वंध पडिबर्द्ध, कालसुतं पुण संतमपेक्खिय ट्ठिदमिदि' | सणक्कुमार- माहिंदे सत्त सागरोवमाणि सादिरेयाणि । बम्ह-बम्हुत्तरकप्पे दस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । लंतव-काविट्ठकप्पे चोदस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । सुक्क- महासुक्केसु सोलस सागरोवमाणि सादिरे - याणि । सदर - सहस्सारकप्पेसु अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । जधा दोहि पयारेहि सोधम्मीसाणे सादिरेयत्तं परूविदं, तथा एत्थ वि वत्तव्वं । सोधम्मादि जाव सहस्सारो ति असजद सम्मादिट्ठिस्स उक्कस्सकालो वे सत्त दस चोदस सोलस अट्ठारस सागरोवमाणि अंतो मुहुत्तूण अद्धसागरोवमेण सादिरेयाणि होति, एदस्स हेट्ठदो सम्मादिट्टिस्सुववादाभावा । " शंका- -' सौधर्म ईशान कल्पसे लगाकर आरण अच्युत कल्प तक क्रमशः दो, सात, दश, चौदह, सोलह, अठारह, वीस और बाईस सागरोपमकी स्थिति होती है' इस गाथा के साथ, इस उक्त सूत्रका विरोध क्यों नहीं होगा ? समाधान - विरोध नहीं होगा, भिन्न है । वह इस प्रकारसे है कि उक्त विद्यमान आयुकी अपेक्षा स्थित है । क्योंकि, सूत्र और गाथा, इन दोनोंका विषय भिन्न गाथासूत्र तो बंधकी अपेक्षा है, किन्तु कालसूत्र सानत्कुमार माहेन्द्र कल्पमें कुछ अधिक सात सागरोपम, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर कल्पमें साधिक दश सागरोपम, लान्तव-कापिष्ठ कल्प में साधिक चौदह सागरोपम, शुक्र-महाशुक्र कल्पमें साधिक सोलह सागरोपम, और शतार - सहस्रार कल्पमें साधिक अठारह सागरोपम मिथ्यादृष्टियों का उत्कृष्ट काल है । जिस तरह दोनों प्रकारोंसे सौधर्म और ईशान कल्पमें आयुकी साधिकता प्ररूपण की है, उसी प्रकार यहां पर भी कहना चाहिए । सौधर्म कल्पको आदि लेकर सहस्रार कल्प तक असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका उत्कृष्ट काल क्रमशः एक अन्तमुहूर्त कम आधे सागरोपमसे अधिक दो सागरोपम, सात सागरोपम, दश सागरोपम, चौदह सागरोपम, सोलह सागरोपम और अठारह सागरोपम प्रमाण होता है, क्योंकि, इस कालके नीचे सम्यग्दृष्टि जीवके उपपादका अभाव है । १ प्रतिषु ' दस ' इति पाठो नास्ति । २ पढमे बिदिए जुगले बम्हादिसु चउसु आणददुगम्मि | आरणदुगे सुदंसणपहुदिसु एक्कारतेसु कमे ॥ दुग सत्त दसं चउदस सोलस अट्ठरस वीस वावीसा । ततो एक्केकजुदा उकस्साऊ समुदउवमाणा ॥ ति. प. ८, ४५८-४५९. ३ बद्धाउं पडि भणिदं उक्कस्तं मज्झिमं जहण्णाणि । घादाउनमा सेज्जं अण्णसरूवं परूवेमो ॥ ति.प. ८, ४९१. ४ सम्मे वादेऊणं सायरदलमहियमा सहस्सारा । जलहिदलमुडुवराऊ पडलं पडि जान हाणिचयं । त्रि. सा. ५३३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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