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________________ १, ५, ९६.] कालाणुगमे देवकालपरूवणं [ ३८३ ट्टिदो । एसो मिच्छादिहिणो बद्धआउअघादं पडुच्च कालो वुत्तो। अधवा, अंतोमुहुत्तूणअद्धसागरोवमेण सादिरेगं सागरोवमं जीविदूण उव्यट्टिदो । एसो सम्मादिविणो बद्धआउअघादं पडुच्च उत्तो । एसो भवणवासियमिच्छादिहि-उक्कस्सकालो । एक्को विराहियसंजदो वेमाणियदेवेसु आउअं बंधिदूग तमोवट्टणाघादेण घादिय भवणवासियदेवेसु उववण्णो। छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) सम्मत्तं पडिवण्णो । अंतोमुहुत्तूणसागरोवमद्धेण अहियं सागरोवमं तीहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणयं सम्मत्तेण सह जीविदण उव्यट्टिय मणुसो जादो। एसो भवणवासियअसंजदसम्माडिदिस्स उक्कस्सकालो । वाणवेंतर-जोदिसियाणं पि एवं चेव वत्तव्यं । णवरि अंतोमुहुत्तूणपलिदोवमद्धेण अहियं पलिदोवमं मिच्छत्तुक्कस्सकालो होदि । एसो चेव कालो तीहि अंतो. मुहुत्तेहि ऊणओ असंजदसम्मादिहिस्स उक्कस्सकालो होदि। सोधम्मीसाणे मिच्छादिहिस्स उक्कस्सकालो वे सागरोवमाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण अन्भहियाणि । एसो मिच्छादिट्ठिणो बद्धाउअस्स घादं पडुच्च कालो वुत्तो । सम्मादिट्ठिणो बद्धदेवाउअघादं पड़च्च अंतोमुहुर्णअद्धसागरोवमेण अब्भहियाणि वे सागरोवमाणि मिच्छत्तुक्कस्सकालो मिथ्यात्वके साथ ही पर्यायसे च्युत हुआ। यह मिथ्यादृष्टि जीवका बच आयुष्कघातकी अपेक्षा काल कहा। अथवा अन्तर्मुहूर्त कम आधे सागरोपमसे अधिक एक सागरोपम तक जीवित रह कर पर्यायसे च्युत हुआ। यह सम्यग्दृष्टि जीवका बद्धायुष्कघातकी अपेक्षा काल कहा। इस प्रकार यह भवनवासी मिथ्यादृष्टि देवोंका उत्कृष्ट काल है। विराधना की है संयमकी जिसने ऐसा कोई संयत मनुष्य वैमानिक देवों में आयुको बांध करके उसे उद्वर्तनाघातसे घात करके भवनवासी देवों में उत्पन्न हुआ। और छहों पर्याप्तियों से पर्याप्त होता हुआ (१). विश्रान्त हो (२), विशुद्ध होकर (३), सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः अन्तर्मुहूर्त कम आधे सागरोपमसे अधिक तथा तीन अन्तर्मुहूसे कम एक सागरोपम काल सम्यक्त्वके साथ जीवित रह कर पर्यायसे च्युत हो मनुष्य हुआ। यह भवनवासी असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल है। वानव्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंका भी इसी प्रकारसे काल कहना चाहिए। विशेषता यह है कि एक अन्तर्मुहूर्तसे कम आधे पल्योपमसे अधिक एक पल्योपम व्यन्तर और ज्योतिषक देवों में मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल होता है। यह उपर्यत काल ही तीन अन्तर्महौसे म करने पर असंयतसम्यग्दृष्टि व्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंका उत्कृष्ट काल हो जाता है । सौधर्म और ईशानकरूपमें मिथ्यादृष्टि देवका उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक दो सामरोपम है। यह मिथ्यादृष्टि के बद्धायुके घातकी अपेक्षा काल कहा। सम्यग्दृष्टि जीवके बद्धदेवायुके घातकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कम आधे सागरोपमसे अधिक दो सागरोपम मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल होता है। १ उवहिदलं पहद्धं भवणे वितरगे कमेणहियं । सम्मे मिच्छे घादे पल्लासखं तु सव्वत्थ ॥ त्रि. सा. ५४१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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