SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 495
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८२] 'छक्खंडागमे जीवट्ठाणं ___ [१, ५, ९४. भवणवासियप्पहुडि जाव सदार-सहस्सारकप्पवासियदेवेसु मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ९४॥ तिहं पि कालाण देवमिच्छादिहि-असंजदसम्मादिट्ठिविरहिदाणमभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ९५ ॥ एदस्स अत्थो जधा देवोधम्हि एदेसिं दोण्हं गुणट्ठाणाणं जहण्णकालपरूवणा वुत्ता, तहा भवणवासियप्पहुडि जाव सदार-सहस्सारकप्पो त्ति मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणं जहण्णकालपरूवणा कादव्या । उक्कस्सेण सागरोवमं पलिदोवमं सादिरेयं वे सत्त दस चोदस सोलस अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ ९६ ॥ एदस्सुदाहरणं- एक्को तिरिक्खो मणुस्सो वा मिच्छादिट्ठी भवणवासियदेवेसु उववण्णो । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागब्भहियं सागरोवमं जीविदूण मिच्छत्तेणेव उव - भवनवासी देवोंसे लेकर शतार सहस्रार कल्पवासी देवों तक मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ९४ ॥ . क्योंकि, मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंसे विरहित तीनों ही कालोंका भभाव है। ___एक जीवकी अपेक्षा उक्त मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका जघन्य. काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ९५॥ - इस सूत्रका अर्थ, जैसा देवोंके ओघमें इन दोनों गुणस्थानोंकी जघन्य कालप्ररूपणा कही है उसी प्रकारसे भवनवासीको आदि लेकर शतार सहस्रारकल्प तकके मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंकी भी जघन्य कालकी प्ररूपणा करना चाहिए। ___उक्त मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका उत्कृष्ट काल साधिक सागरोपम, साधिक पल्योपम, साधिक दो सागरोपम, साधिक सात सागरोपम, साधिक दश सागरोपम, साधिक चौदह सागरोपम, साधिक सोलह सागरोपम और साधिक अठारह सागरोपम है ॥ ९६ ॥ इसका उदाहरण- एक तिर्यंच अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव भवनवासी देवोमै उत्पन्न शुभा। वहां पर पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक एक सागरोपमतक जीवित रह कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy