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१, ५, ३१०.] कालाणुगमे भवियकालपरूवणं
[४७७ विणासुवलंभा । अकारणत्तादो ण तस्स विणासो चे ण, अणादिबंधनबद्धकम्मकारणत्तादो । सिद्धाणं मिच्छत्तासंजमकसायजोगकम्मासवविरहियाणं ण संसारे पदणमत्थि, तदो ण सादि भवियत्तं । ण पडिवण्णसम्मत्तस्स वि सादि भवियत्तं होदि, पुव्वं पि तत्थ भवियत्तुवलंभा ? एत्थ परिहारो वुच्चदे- ण संसारे णिवदिदसिद्धे अस्सिदूण भवियत्तं सादि उच्चदे । ण च ते संसारे णिवदंति, णट्ठासवत्तादो। किंतु गहिदसम्मत्तजीवस्स भवियत्तं सादि उच्चदे । ण च तं पुवमत्थि, सादिसांतस्सेदस्स पुचिल्लण अणादि-अणंतेण सह एयत्तविरोहा । पुविल्लमवि भवियत्तं सांतं चे ण, सत्तिं पडुच्च तस्स सांतत्तुवएसा । ण वत्तिं पडुच्च सम्मत्तगहणेण विणा अणंतसंसारस्स जीवस्स सांतं भवियत्तं, विरोहा । अणादि-अणंतेण वि भवियत्तेण होदव्वं, अण्णहा भव्यजीववोच्छेदप्पसंगादो ।
अस्थि अणंता जीवा जेहि ण पत्तो तसाण परिणामो । भावकलंकइपउरा णिगोदवासं ण मुंचंति ॥ ४२ ।।
विनाश पाया जाता है।
शंका-कारणरहित वस्तुका विनाश नहीं होता है, इसलिए अज्ञान या कर्मबन्धका भी विनाश नहीं होना चाहिए ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, अज्ञान या कर्मबन्धका कारण अनादिबन्धनबद्ध कर्म ही है।
शंका-मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगके द्वारा कर्मानवसे विरहित सिद्ध जीवोंका पुनः संसारमें पतन नहीं होता है, इसलिए भव्यत्व सादि-सान्त नहीं है । और न प्रतिपन्नसम्यक्त्वी जीवके भी भव्यत्व सादि होता है, क्योंकि, सम्यक्त्वकी प्राप्तिके पूर्व भी उस जीवमें भव्यत्व पाया जाता है ?
समाधान -अब उक्त आशंकाका परिहार कहते हैं- संसारमें पुनः लौटकर आनेवाले सिद्ध जीवोंकी अपेक्षासे भव्यत्वको सादि नहीं कह सकते, क्योंकि, कर्मानवोंके नष्ट हो जानेसे वे संसारमें पुन: लौटकर नहीं आते। किन्तु ग्रहण किया है सम्यक्त्वको जिसने, ऐसे जीवके भन्यत्वको सादि कहते हैं तथा, वह पूर्व में भी नहीं है, क्योंकि, इस सादि-सान्त भव्यत्वके पूर्ववर्ती उस अनादि-अनन्त भव्यत्वके साथ एकत्वका विरोध है।
शंका-पहलेके भव्यत्वको भी यदि सान्त मान लिया जाय, तो क्या हानि है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, शक्तिकी अपेक्षासे उसके सान्तताका उपदेश किया गया है। व्यक्तिकी अपेक्षा सम्यक्त्वग्रहणके विना अनन्त संसारी जीवके सान्त भ माना जा सकता, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। अर्थात्, फिर तो भव्यत्वको अनादि-अनन्त भी होना पड़ेगा, अन्यथा, भव्य जीवोंके विच्छेदका प्रसंग प्राप्त होगा। तथा
ऐसे अनन्तानन्त जीव हैं कि जिन्होंने सोंकी पर्याय अभी तक नहीं पाई है, और जो दूषित भावोंकी अति प्रचुरताके कारण कभी भी निगोदके वासको नहीं छोड़ते हैं ॥४२॥
१ गो. जी. १९.
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