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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,५, ३०८.
चदुण्हमुवसमा चदुण्हं खवगा सजोगिकेवली ओघं ॥ ३०८ ॥ कुदो ! एसिमोघे व सुक्कलेस्सं मोत्तूण अण्णलेस्साभावा । एवं लेस्सामग्गणा समत्ता ।
भवियाणुवादेण भवसिद्धिएसु मिच्छा दिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पहुच सव्वद्धा ॥ ३०९ ॥
४७६ ]
सुगममेदं सुतं ।
एगजीवं पडुच्च अणादिओ सपज्जवसिदो सादिओ सपज्जवसिदो ॥ ३१० ॥
तं जहा- भवियत्तं दुविहं, अणादिसपज्जवसिदं सादिसपज्जवसिदमिदि । पुव्त्रम - लद्धसम्मत्तस्स अणादिसपज्जवसिदं । सम्मत्तं लहिऊण मिच्छत्तं गदस्स सादिसपज्जवसिदं । अणादित्तादो अकट्टिमस्स ण विणासो चे ण, अण्णाणस्स कम्मबंधस्स य अणादिस्व
शुक्कलेश्यात्राले चारों उपशामक, चारों क्षपक और सयोगिकेवलीका काल ओघके समान है || ३०८ ॥
क्योंकि, इन गुणस्थानवालोंके ओघ में भी शुक्ललेश्याको छोड़कर अन्य लेश्याका
अभाव है ।
इस प्रकार लेइयामार्गणा समाप्त हुई ।
भव्य मार्गणा के अनुवादसे भव्यसिद्धिक जीवों में मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ३०९ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
एक जीवकी अपेक्षा अनादि- सान्त और सादि- सान्त काल है ।। ३१० ॥ जैसे - भव्यत्व दो प्रकारका है, अनादि-सान्त और सादि- सान्त । पूर्वमें नहीं प्राप्त हुआ है सम्यक्त्व जिसको, ऐसे जीवके अनादि- सान्त भव्यत्व होता है । सम्यक्त्वको प्राप्त करके मिथ्यात्वको गये हुए जीवके सादि- सान्त भव्यत्व होता है ।
शंका- जो वस्तु अनादि है, वह अकृत्रिम होती है और उसका विनाश नहीं होता । (इसलिए मिथ्यात्वको अनादि होनेसे अकृत्रिमता सिद्ध है, फिर उसका विनाश नहीं होना चाहिए ? )
समाधान- नहीं, क्योंकि, अज्ञानका और कर्मबन्धका, उनके अनादि होते हुए भी,
१ भव्यानुवादेन भव्येषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८.
१ एकजीवापेक्षया द्वौ भंगौ, अनादिः सपर्यवसानः, सादिः सपर्यवसानश्च । स. सि. १,८,
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