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________________ १, ५, ३०७.] कालाणुगमे सुक्कलेस्सियकालपरूवणे (१५५ एसा गुणपरावती (२)। अधवा अप्पमत्तो हायमाणसुक्कलेस्सिगो सुक्कलेस्सद्धाए सह पमत्तो जादो । विदियसमए मदो देवत्तं गदो (३)। अप्पमत्तस्स उच्चदे- एको पमत्तो सुक्कलेस्साए अच्छिदो, सुक्कलेस्साए सह अप्पमत्तो जादो । विदियसमए मदो देवत्तं गदो (१)। अधवा अपुव्वकरणो ओदरंतो सुक्कलेस्सिगो अप्पमत्तो होदूण मदो देवो जादो (२)। एत्थ एगसमयमंगपरूवणगाहा ___ दो दो य तिणि तेऊ तिणि तिया होति पम्मलेस्साए । दो तिग दुगं च समया बोद्धव्वा सुक्कलेस्साए ॥ ४१ ॥ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३०७॥ कुदो ? सुक्कलेस्साए परिणमिय उक्कस्समतोमुहुत्तमच्छिय पम्मलेस्सं गदाणमुक्कस्सकालुवलंभा। है, किन्तु अप्रमत्तसंयत हो गया। यह गुणस्थानसम्बन्धी परिवर्तन है (२)। अथवा, हायमान शुक्ललेश्यावाला कोई अप्रमत्तसंयत, शुक्ललेश्याके ही कालके साथ प्रमत्तसंयत हो गया। पुन: दूसरे समयमें मरा और देवत्वको प्राप्त हुआ (३)। अब अप्रमत्तसंयतके एक समयकी प्ररूपणा करते हैं-शुक्लले श्याम विद्यमान कोई एक प्रमत्तसंयत जीव शुक्ललेश्याके साथ ही अप्रमत्तसंयत हो गया। वह द्वितीय समयमें मरा और देवत्वको प्राप्त हुआ (१)। अथवा, शुक्ललेश्यावाला श्रेणीसे उतरता हुआ कोई अपूर्वकरणसंयत अप्रमत्तसंयत होकर मरा और देव हो गया (२)। यहां पर एक समयके भंगोंकी प्ररूपणा करनेवाली गाथा इस प्रकार है तेजोलेश्याके दो, दो और तीन समयभंग होते हैं। पनलेश्याके तीन त्रिक अर्थात् तीन, तीन और तीन समयभंग होते हैं। तथा, शुक्ललेश्याके दो, तीन और दो समयभंग होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥४१॥ विशेषार्थ-ऊपर जो एकसमयसम्बन्धी अनेक विकल्प बताये गये हैं, उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-तेजोलेश्यासम्बन्धी देशसंयतके दो भंग, प्रमत्तसंयतके दो भंग, और अप्रमत्तसंयतके तीन भंग, इस प्रकार कुल (२+२+३७) सात भंग होते हैं। पनलेश्यासम्बन्धी देशसंयतके तीन भंग, प्रमत्तसंयतके तीन भंग और अप्रमत्तसंयतके तीन भंग, इस प्रकार कल (३+३+३ =९)नौ भंग होते हैं। शकलेश्यासम्बन्धी देशसंयतके दोभंग.प्रमत्त. संयतके तीन भंग और अप्रमत्तसंयतके दो भंग, इस प्रकार कुल (२+३+२ = ) सात भंग जानना चाहिए। उक्त तीनों गुणस्थानोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३०७॥ क्योंकि, शुक्ललेश्यासे परिणत होकर उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त रह कर पालेश्याको प्राप्त हुए जीवोंके उत्कृष्ट काल पाया जाता है। १ उत्कणान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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