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________________ १, ५, ४. ] कालानुगमे मिच्छादिकाल परूवणं [ ३३१ एत्थ अप्पा बहुगं । सव्वत्थोवा अगहिदगहणद्धा । मिस्सयगहणद्धा अनंतगुणाओ । जहणिया गहिदगहणद्धा अनंतगुणा । जहण्णओ पोरगलपरियो विसेसाहिओ । उक्कस्सिया गहिदगहणद्धा अनंतगुणा । उक्कस्सओ पोग्गलपरियद्वो विसेसाहिओ । किं कारणमगहिद गणद्धा थोवा जादा ? बुच्चदे जे णोकम्मपज्जाएण परिणमिय अकम्मभावं गंतूण तेण अकम्मभावेण जे थोवकालमच्छिया ते बहुवारमागच्छंति, अविणटुचउव्विहपाओगादो' । जे पुण अप्पिदपोग्गल परियदृभंतरे ण गहिदा ते चिरेण आगच्छंति, अकम्मभावं गतूण तत्थ चिरकालावट्ठाणेण विणट्टचउच्चिहपाओग्गत्तादो । भणिदं च--- मट्ठदिसंत्तं आसणं कम्मणिरामुक्कं । पारण एदि गहणं दव्त्रमणिद्दिट्टसंठाणं ॥ २० ॥ अब उक्त अगृहीत, मिश्र और गृहीतसंबन्धी तीनों प्रकारके कालोका अल्पबहुत्व कहते हैं - सबसे कम अगृहीतग्रहणका काल है । अगृहीतग्रहणके काल से मिश्रग्रहणका काल अनन्तगुणा है । मिश्रग्रहण के कालसे जघन्य गृहीतग्रहणका काल अनन्तगुणा है । जघन्य गृहीतग्रहण कालसे जघन्य पुद्गलपरिवर्तनका काल विशेष अधिक है । जघन्य पुद्गलपरिवर्तन के काल से उत्कृष्ट गृहीतग्रहणका काल अनन्तगुणा है । और उत्कृष्ट गृहीतग्रहणके कालसे उत्कृष्ट पुलपरिवर्तनका काल विशेष अधिक है । शंका - अगृहीतग्रहणकालके सबसे कम होनेका कारण क्या है ? समाधान - जो पुद्गल नोकर्मपर्याय से परिणमित होकर पुनः अकर्मभाव को प्राप्त हो, उस अकर्मभाव से अल्पकाल तक रहते हैं वे पुगल तो बहुतवार आते हैं; क्योंकि, उनकी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप चार प्रकारकी योग्यता नष्ट नहीं होती है। किन्तु जो पुद्गल विवक्षित पुलपरिवर्तन के भीतर नहीं ग्रहण किये गये हैं, वे चिरकालके बाद आते हैं, क्योंकि, अकर्मभावको प्राप्त होकर उस अवस्थामें चिरकाल तक रहने से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप संस्कारका विनाश हो जाता है । कहा भी है जो कर्मपुल पहले बद्धावस्थामें सूक्ष्म अर्थात् अल्प स्थिति से संयुक्त थे, अतएव निर्जरा द्वारा कर्मरूप अवस्था से मुक्त अर्थात् रहित हुए, किन्तु आसन्न अर्थात् जीवके प्रदेशों के साथ जिनका एकक्षेत्रावगाह है, तथा जिनका आकार अनिर्दिष्ट अर्थात् कहा नहीं जा सकता है, इस प्रकारका पुल द्रव्य बहुलतासे ग्रहणको प्राप्त होता है ॥ २० ॥ I १ अत्रगृहीतग्रहणकाल : अनन्तोऽपि सर्वतः स्तोकः । कुतः, विनष्टद्रव्यक्षेत्रकालभावसंस्कारपुद्गलानी बहुवारह्णाघटनात् । अनेन विवक्षितपुद्गलपरिवर्तनमध्ये बहुवारग्रहणं संभवतीत्युक्तं भवति । गो. जी. जी. प्र. ५६०. २ अल्पस्थितिसंयुक्तं जीवप्रदेशेषु स्थितं निर्जरया विमोचितकर्मस्वरूपं पुद्गलद्रव्यं अनिर्दिष्टसंस्थानं विवक्षित परावर्तन प्रथमसमयोक्तस्वरूपरहितं जीवेन प्रचुरत्या स्वीक्रियते । कुतः ? द्रव्यादिचतुर्विधसंस्कार संपन्नत्वात् । गो. जी. जी. प्र. ५६०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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