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[१, ५, ४.
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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं जीवेण णोकम्मसरूवेण गहिदा पोग्गला ते विदियादिसमएसु अकम्मभावं गंतूण जम्हि काले ते चेव सुद्धा आगच्छंति सो कालो पोग्गलपरियत्ति भण्णदि ।
आदिम समयमें जीवके द्वारा नोकर्मस्वरूपसे जो पुद्गल ग्रहण किये थे वे ही पुद्गल द्वितीयादि समयोंमें अकर्मभावको प्राप्त होकरके जिस कालमें वे ही शुद्ध पुद्गल आने लगते हैं, वह काल 'पुद्गलपरिवर्तन' इस नामसे कहा जाता है।
विशेषार्थ- परिवर्तन पांच प्रकारका है-द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन, भवपरिवर्तन और भावपरिवर्तन । इनमें से द्रव्यपरिवर्तनके दो भेद हैं-नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन और कर्मद्रव्यपरिवर्तन । यहां नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनका स्वरूप बतलाया गया है। उसी स्वरूपके समझानेके लिए मूलमें संदृष्टि दी गई है.। जिसमें अगृहीतसूचक शून्य (०) पुनः मिश्रसूचक हंसपद (+) और गृहीतसूचक एकका अंक (१) दिया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि अनन्तवार अगृहीत परमाणुपुंजके ग्रहण करनेके बाद एक वार मिश्र परमाणुपुंजका ग्रहण होता है । पुनः अनन्तवार उक्त क्रमसे मिश्रग्रहण करनेके बाद एक धार गृहीत परमाणुपुंजका प्रहण होता है। इस प्रकार अनन्तवार गृहीतग्रहण हो जाने पर नोकर्मपुद्गलपरिवर्तनका प्रथम भेद समाप्त होता है । यह संदृष्टिकी प्रथम कोष्ठक-पंक्तिका अर्थ है। तत्पश्चात् अनन्तवार मिश्रका ग्रहण होने पर एकवार अगृहीतका ग्रहण होता है। और अनन्तवार अगृहीतका प्रहण हो जाने पर एकवार गृहीतका ग्रहण होता है। इस प्रकारसे अनन्तवार गृहीतका ग्रहण हो जाने पर नोकर्मपुद्गलपरिवर्तनका दूसरा भेद समाप्त होता है। यही दूसरी कोष्ठक पंक्तिका अभिप्राय है । पुनः अनन्तवार मिश्रका ग्रहण हो जाने पर एकवार गृहीतका, और अनन्तवार गृहीतका ग्रहण हो जाने पर एकवार अगृहीतका ग्रहण होता है । इस प्रकार अनन्तधार अगृहीतग्रहण होने पर नोकर्मपुद्गलका तीसरा भेद समाप्त होता है। यही तीसरी कोष्ठक-पंक्तिका अर्थ है। पुनः अनन्तवार गृहीतका ग्रहण होनेके पश्चात् एकवार मिश्रका और अनन्तवार मिश्रका ग्रहण होने पर एकवार अगृहीतका ब्रहण होता है। इस प्रकारसे अनन्तवार अगृहीतका ग्रहण हो जाने पर नोकर्म पुद्गलपरिवर्तनका चौथा भेद समाप्त होता है। इस सबके समुदायको नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन कहते हैं। तथा इसमें जितना समय लगता है उसको नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनका काल कहते हैं।
१ प्रतिषु
+१ । १ +
+ इति पाठः। +|.
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