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________________ १५.1 छक्खंडागमे जीवहाणं [१, १, ५. पदरम्भंतरे सव्वत्थ सासणा संभवंति । तसजीवविरहिदेसु असंखेज्जेसु समुद्देसु णवरि सासणा णत्थि' । वेरियवेंतरदेवेहि घित्ताणमत्थि संभवो, णवरि ते सत्थाणत्था' ण होति, विहारेण परिणदत्तादो। तं खेत्तं तिरियलोगपमाणेण कीरमाणे एगं जगपदरं पुरदो भण्णमाणपमाणेहि संखेज्जरूवेहि खंडिय लद्धं रज्जूपदरम्हि अवणिय संखेज्जंगुलेहि गुणिदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागं होदूण संखेज्जंगुलबाहल्लं जगपदरं होदि । संपहि जोइसियसासणसम्माइद्विसत्थाणखेत्तं भणिस्सामो। तं जहा- जंबूदीवे वे चंदा, वे सूरा । लवणसमुद्दे चत्तारि चंदा, चत्तारि सूरा । धादइखंडे पुध पुध वारह चंदाइच्चा । कालोदयसमुद्दे बादाल चंदाइच्चा। पोक्खरदीवद्धे बाहत्तरि चंदाइच्चा' । माणुसोत्तरसेलादो बाहिरपंतीए चोदालसदमेत्ता । तदो चत्तारि रूवपक्खेवं काद्ग णेदव्वं ........................................ समाधान- 'सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीतकाल में देशोन आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है। इस सूत्र-वचनसे जाना जाता है कि त्रसजीव लोकनालीके भीतर ही रहते हैं, बाहर नहीं। इसलिए राजुप्रतरके भीतर सर्वत्र सासादनसम्यग्दृष्टि जीव संभव है। विशेषता केवल यह है कि त्रसजीवोंसे विरहित (मानुषोत्तर और स्वयंप्रभ पर्वतके मध्यवर्ती) असं. ख्यात समुद्रोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि जीव नहीं होते हैं । यद्यपि वैरभाव रखनेवाले व्यन्तर देवोंके द्वारा हरण करके ले जाये गये जीवोंकी वहां संभावना है, किन्तु वे वहांपर स्वस्थानस्वस्थानस्थ नहीं कहलाते हैं, क्योंकि, उस समय वे विहाररूपसे परिणत हो रहे हैं। इस क्षेत्रको तिर्यग्लोकके प्रमाणसे फरनेपर, एक जगप्रतरको आगे कहे जानेवाले संख्यातरूप प्रमाणसे खंडित करके जो लब्ध आवे, उसे राजुप्रतरमेंसे निकाल करके पुनः संख्यात अंगु लोसे गुणा करनेपर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग होकर संख्यात अंगुल बाहल्यवाला अगप्रतर होता है। अब सासादनसम्यग्दृष्टि ज्योतिषी देवोंके स्वस्थानस्वस्थानक्षेत्रको कहते हैं । वह इस प्रकार है- जम्बूद्वीपमें दो चन्द्र और दो सूर्य हैं। लवणसमुद्र में चार चन्द्र और चार सूर्य हैं । घातकीखंडमें पृथक् पृथक् बारह चन्द्र और बारह सूर्य हैं। कालोदकसमुद्र में ब्यालीस चन्द्र और ब्यालीस सूर्य हैं। पुष्करद्वीपार्धमें बहत्तर चन्द्र और बहत्तर सूर्य हैं । मानुषोत्तर १लवणोदे कालोदे जीवा अंतिमसयंभुरमणम्मि। कम्ममहीसंबद्धे जलयरया होति ण हु सेसे ॥ ति.प. ५, ३१. जलयरीवा लवणे काले यतिमसयंभुरमणे य । कम्ममहपिडिबद्ध न हि सेसे जलयरा जीवा ॥ त्रि.सा. ३२०. १ प्रतिषु सव्वाणवा',म प्रती सव्वाणत्था' इति पाठः। चित्तारो लवणेज धादादीवम्मि वारस मियंका। वादाल कालसलिले बाहत्तरि पुक्खरखम्मि । ति. प. पत्र २५१-१२२. दो दोवगं वारस नादाल बहत्तरिंदुइणसंखा। पुक्खरदलो ति परदो अवटिया सन्बजोगणा। त्रि.सा. ३४६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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