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________________ १, ४, ४.] फोसणाणुगमे सासणसम्मादिहिफोसणपरूवणं कसाय-वेउब्धिय-मारणंतिय-उववादगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो फोसिदो । माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणं खेत्तं फोसिदं । एत्थ कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । अट्ट वारह चोदसभागा वा देसूणा ॥४॥ सासणसम्मादिट्ठीहिं ति पुव्वसुत्तादो अणुवदृदे । अदीदकालखेत्तपदुप्पायणमिदं सुत्तमागदं । तं कधं णव्वदे ? अट्ठ वारह चोद्दसभागण्णहाणुववत्तीदो। जेणेदं देसामासिगसुत्तं, तेणेदस्स पज्जवट्ठियपरूवणा पज्जवट्ठियजणाणुग्गहढं कीरदे । तं जहा- सत्थाणसत्थाणगदेहिं तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो फोसिदो । अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणं । अदीदसत्थाणखेत्तस्साणयणविधाणं वुच्चदे । तं जधा- तत्थ ताव तिरिक्खसासणसत्थाणखेत्तं भणिस्सामो। तसजीवा लोगणालीए अभंतरे चेव होंति, णो बहिद्धा । तं कुदो गव्यदे ? ' अट्ठ चोदसभागा देसूणा' ति वयणादो। तदो रज्जु वत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन पदोंको प्राप्त सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है । तथा मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । यहांपर कारण पूर्वके समान ही कहना चाहिए। सासादनप्तम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीतकालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह माग तथा कुछ कम बारह बटे चौदह भाग प्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है ॥४॥ इस सूत्रमें 'सासादनसम्यग्दृष्टियोंने ' इस पदकी पूर्व सूत्रसे अनुवृत्ति होती है। यह सूत्र अतीतकालसम्बन्धी क्षेत्रके प्रतिपादन करनेके लिए आया है। शंका- यह सूत्र अतीतकालसम्बन्धी क्षेत्रकी प्ररूपणाके लिए आया है, यह कैसे जाना? समाधान-आठ बटे चौदह और बारह षटे चौदह भागोंकी प्ररूपणा अन्यथा बन बन नहीं सकती है, अतः इस अन्यथानुपपत्तिसे जाना जाता है कि यहां पर अतीतकालसम्बन्धी क्षेत्रका प्रतिपादन करना अभीष्ट है। चूंकि यह सूत्र देशामर्शक है, इसलिए इसकी पर्यायाथिकनयसम्बन्धी प्ररूपणा पर्यायाथिकनयवाले शिष्यों के अनुग्रहके लिए की जाती है। वह इस प्रकार हैस्वस्थानस्वस्थानपदको प्राप्त सासादनसम्यग्दृष्टियोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग और तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है, तथा अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। अब अतीतकालसम्बन्धी स्वस्थानस्वस्थानक्षेत्रके निकालनेका विधान कहते हैं। वह इस प्रकार है-उसमेंसे पहले तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टियोंके स्वस्थानस्वस्थानक्षेत्रको कहते हैं। त्रसजीव लोकनालीके भीतर ही होते हैं, बाहर नहीं। शंका-यह कैसे जाना ? १ प्रतिषु — बहिमा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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