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________________ १, ३, १.] खेत्ताणुगमे णिदेसपरूवणं सो च एत्थ चउविहो णिक्खेवो' णाम-ढवणा-दव्य-भावखेत्तभेएण । कध णिक्खेवस्स चउबिहत्तं ? दव्वट्ठिय-पज्जवट्टियणयावलंबिवयणवावारादो। उत्तं च णामं ठवणा दवियं ति एस दव्वडियस्स णिक्खेवो । भावो दु पज्जवढियपरूवणा एस परमत्थो ॥ २॥ जीवाजीवुभयकारणणिरवेक्खो अप्पाणम्हि पयहो' खेत्तसद्दो णामखेतं । सो च णामणिक्खेवो वयण-वत्तव्वणिच्चज्झवसायमंतरेण ण होदि ति, तब्भव-सरिससामण्णणिबंधणो त्ति वा, वाच्य-वाचकशक्तिद्वयात्मकैकशब्दस्य पर्यायार्थिकनये असंभवाद्वा दव्वादिय पह निक्षेप यहां पर नामक्षेत्र, स्थापनाक्षेत्र, द्रव्यक्षेत्र और भाषक्षेत्रके भेदसे चार प्रकारका है। शंका-निक्षेप चार प्रकारका कैसे है? समाधान-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयके आश्रय करनेवाले पचोंके व्यापारकी अपेक्षासे निक्षेप चार प्रकारका होता है। कहा भी है ___ नाम, स्थापना और द्रव्य, ये तीन निक्षेप द्रव्यार्थिकनयकी प्ररूपणाके विषय है और भावनिक्षेप पर्यायार्थिकनयकी प्ररूपणाका विषय है। यही परमार्थ सत्य है ॥२॥ जीव, अजीव और उभयरूप कारणों की अपेक्षासे रहित होकर अपने आपमें प्रवृत्त हुमा 'क्षेत्र' यह शब्द नामक्षेत्रनिक्षेप है। वह नामनिक्षेप, वचन और वाच्यके नित्य अध्य य अर्थात वाच्य-वाचक-सम्बन्धके सार्वकालिक निश्चयके विना नहीं होता है इसलिये. अथवा तद्भव-सामान्य निबन्धनक और सादृश्य-सामान्य-निमित्तक होता है इसलिये, अथषा, पाच्य-वाचकरूप दो शक्तियोंवाला एक शब्द पर्यायार्थिक नयमें असंभव है इसलिये, द्रव्या. र्थिकनयका विषय है, ऐसा कहा जाता है। विशेषार्थ-यहां पर नामनिक्षेपको द्रव्यार्थिकनयका विषय बतलानेके लिए तीन हेतु दिये हैं, जिनका अभिप्राय क्रमशः इस प्रकार है । (१) नामनिक्षेप वचन और वाच्यके नित्य अध्यवसायके विना नहीं होता है, इसलिए यह द्रव्यार्थिकनयका विषय है, अर्थात्, “इस शब्दसे यह पदार्थ जानना चाहिए' इस प्रकारका संकेत किये जानेसे शब्द अपने वाच्यका वाचक होता है। यदि यह संकेत या वाच्य-वाचकका सम्बन्ध नित्य न माना जाय, तो भिन्न देश या भिन्न कालमें उस शब्दसे उसके वाच्यरूप अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है। किन्तु 'देवदत्त' आदि जो नाम किसी व्यक्तिके बाल्यावस्थामें रखे गये थे, वह आज वृद्धावस्था में भी समानरूपसे उस व्यक्तिके वाचक देखे जाते हैं, इससे सिद्ध होता है कि वचन और वाच्यके मध्यमें जो सम्बन्ध है, वह नित्य है । और नित्यताका द्रब्यके अतिरिक्त अन्यत्र पाया १म१प्रतौ सो च'त्यधिकः पाठः। २ स.त. १,६. ३ प्रतिषु पयट्ठो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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