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________________ ] छपखंडागमे जीवद्वाणं [ १, ३, १. यस्सेत्ति वुच्चदे | कट्ट- दंत - सिलादीणि सन्भावासन्भावसरूवाणि बुद्धीए इच्छिदखे तेणेयतमुवगयाणि वणा णाम । सम्भावासब्भावसरूवेण सव्वदव्ववाविति वा, पधाणापधाण जाना असंभव है, इससे सिद्ध होता है कि नामनिक्षेप द्रव्यार्थिकनयका विषय है । नामनिक्षेपको तद्भवसामान्य और सादृश्यसामान्य-निमित्तक कहा है, उसका अभिप्राय यह है कि, विवक्षित सुवर्णादि वस्तुके पूर्वापर कालभावी कटक, केयूरादि पर्यायों में विभिन्नता रहते हुए भी उनमें एक ही सुवर्ण समानरूपसे सदा विद्यमान रहता है, इसलिए इस प्रकार की समानताको तद्भवसामान्य कहते हैं । तथा, किसी भी एक विवक्षित कालमें विद्यमान, किन्तु विभिन्न प्रकारके सुवर्णोंसे निर्मित कटक, कुण्डल, केयूरादि पर्यायोंमें 'यह भी सुवर्ण है, यह भी सुवर्ण है, ' इत्यादि रूपसे सदृशता-बोधक जो समानता है, उसे सादृश्य- सामान्य कहते हैं । इसी प्रकारले नामनिक्षेपरूप शब्द भी पूर्वापर- कालभावी ' क्षेत्र, क्षेत्र ' इत्यादि शब्दों में समान प्रतीतिका उत्पादक होनेसे तद्भवसामान्यका निमित्त है । तथा, विवक्षित किसी भी एक काल में विभिन्न देशवर्ती मथुरा, काशी इत्यादि क्षेत्रों में 'यह भी क्षेत्र है, यह भी क्षेत्र है' इत्यादि रूपले उच्चारण किये जानेवाला शब्द सदृश-प्रत्ययका उत्पादक होनेसे सादृश्यसामान्यका भी निमित्त होता है । और सामान्यको विषय करना ही द्रव्यार्थिकनयका विषय है; इसलिए नामनिक्षेपको द्रव्यार्थिकनयका विषय कहना युक्ति-संगत ही है । ( ३ ) नामनिक्षेपको द्रव्यार्थिकनयका विषय बतानेके लिए तीसरी युक्ति यह दी है कि वाच्य वाचकरूप दो शक्तियोंवाला एक शब्द पर्यायार्थिकनयमें असंभव है, अर्थात् पर्यायार्थिकनयका विषय नहीं हो सकता । इसका अभिप्राय यह है कि शब्द में वाच्य वाचकरूप दो शक्तियां एक साथ ही पाई जाती हैं; अर्थात् शब्द अपने वाच्यरूप अर्थका प्रतिपादक होता है, इसलिए तो उसमें सदा वाचकशक्ति विद्यमान है । और स्वयं भी अपने स्वरूपका विषय होता है, इसलिए वाच्यशक्ति भी उसमें सर्वदा पाई जाती है । इस प्रकार किसी भी विवक्षित समय में वह उक्त दोनों अर्थात् वाच्यवाचकरूप शक्तियोंसे युक्त रहेगा। और इसी कारण से वह पर्यायार्थिकनयका विषय नहीं हो सकता, क्योंकि, यद्यपि आगममें शब्दको पुद्गलद्रव्यकी पर्याय कहा है तथापि जब वही शब्द वाच्य वाचकरूप दो शक्तियोंवाला विवक्षित किया जाता है, तब वह द्रव्य कहलाने लगता है । चूंकि शक्ति, गुण या धर्मको कहते हैं, इसलिए 'गुणसमुदायो दव्वं' के नियमानुसार शक्तियोंवालेको द्रव्य ही कहा जायगा, पर्याय नहीं । इस प्रकार जब शब्द पुद्गलद्रव्य सिद्ध हो जाता है, तब वह द्रव्यार्थिकनयका ही विषय हो सकता है, पर्यायार्थिकनयका नहीं । इसलिए भी नामनिक्षेपको द्रव्यार्थिकनयका विषय कहना सर्वथा युक्तियुक्त ही है । बुद्धिके द्वारा इच्छित क्षेत्रके साथ एकत्वको प्राप्त हुए, अर्थात् जिनमें बुद्धिके द्वारा इच्छित क्षेत्रकी स्थापना की गई है ऐसे सद्भाव और असद्भाव स्वरूप काष्ठ, दन्त और शिला आदि स्थापनाक्षेत्रनिक्षेप है । यह स्थापनानिक्षेप, ताकार और अतदाकार स्वरूपसे सर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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