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________________ १, ३, ६. खेत्ताणुगमे णेरइयखेत्तपरूषणं [१५ मारणंतियरासिमिच्छिय दो आवलियाए असंखेज्जदिभागे अण्णोण्णगुणे करिय पुव्वरासिस्स भागहारं ठविय तप्पाओग्गेण आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे मारणंतियरासी होदि । सेसविधी पुव्वं व । एवं सम्मामिच्छाइटिस्स । णवरि मारणंतियं पि णत्थि । असंजदसम्माइट्ठिस्स सासणभंगो । णवरि उववादो अत्थि । मारणंतिय-उववादेसु णेरइया सम्माइट्ठिणो संखेज्जा चेव होति । सेसं जाणिय वत्तव्यं । एवं सत्तसु पुढवीसु णेरइया ॥६॥ दव्वट्ठियणयमवलंबिय सुत्तं जदो द्विदं तदो सत्तण्डं पुढवीणं परूवणा ओघपरूवणाए तुल्लेत्ति घडदे । पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिजमाणे पढमपुढविपरूवणा ओघपरूवणाए तुल्ला, सव्वगुणाणं सव्वपदेहि सरिसत्तुवलंभादो । ण विदियादिपंचपुढवीणं परूवणा ओघपरूवणाए पदं पडि तुल्ला, तत्थ असंजदसम्माइट्ठीणं उववादाभावादो । ण सत्तमपुढविपरूवणा वि णिरओघपरूवणाए तुल्ला, सासणसम्माइट्ठिमारणंतियपदस्स असं चाहिये । इतनी विशेषता है कि उनके उपपाद नहीं पाया जाता है। जब मारणान्तिक समुद्धातको प्राप्त राशिके लाने की इच्छा हो तब दो वार आवलाके असंख्यातवें भागको परस्पर गुणित करके और उसे पूर्वराशिका भागहार स्थापित करके उसके योग्य आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त राशि होती है। शेष विधि पहलेके समान है। इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकियों के भी स्वस्थानस्वस्थान आदि जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके मारणान्तिकसमुद्धात भी नहीं होता है। असं सम्यग्दृष्टि नारकियोंके स्वस्थानस्वस्थान आदि सासादनसम्यग्दृष्टि नारकियोंके स्वस्थानस्वस्थान आदिके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके उपपाद पाया जाता है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादमें सम्यग्दृष्टि नारकी संख्यात ही पाये जाते हैं। शेष कथन जानकर करना चाहिये। इसीप्रकार सातों पृथिवियोंमें नारकी जीव लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं ॥६॥ चूंकि यह सूत्र द्रव्यार्थिक नयका अवलंबन लेकर स्थित है, इसलिये सातो पृथिवियोंकी प्ररूपणा ओघप्ररूपणाके तुल्य है, यह कथन घटित हो जाता है। पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर तो पहली पृथिवीकी प्ररूपणा ओघप्ररूपणाके तुल्य है, क्योंकि, पहली पृथिवीमें सामान्यप्ररूपणासे सर्व गुणस्थानोंकी सर्वपदोंकी अपेक्षा समानता पाई जाती है। किंतु स्वस्थानस्वस्थान आदि पदोंकी अपेक्षा द्वितीयादि पांच पृथिवियोंकी प्ररूपणा ओघ. प्ररूपणाके समान नहीं है, क्योंकि, उन पृथिवियों में असंयतसम्यग्दृष्टियोंका उपपाद नहीं होता है। इसीप्रकार सातवीं पृथिवीकी प्ररूपणा भी नारक सामान्यप्ररूपणाके तुल्य नहीं है, क्योंकि, सातवीं पृथिवा में सासादनसम्यग्दृष्टिसंबन्धी मारणान्तिकपदका और असंयतसम्य १ प्रतिषु · जदो द्विदं तदो द्विदं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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