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________________ ६४ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ३, ५. उवलंभादो | तेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपढमपुढविउक्कमणकालेण ओवड्डिय लद्धस्स असंखेज्जा भागा विग्गहं करेंति । तेसिं पि असंखेज्जा भागा मारणंतियं करेंति त्ति । पुणो तमावलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तमारणंतियउवक्कमणकालेण गुणिदे मारणंतियरासी आगच्छदि । पुणो णेरइयमुहवित्थारेण णवगुणरज्जु असंखेज्जदिभागेण मारणंतियरासिं गुणिदे तक्खेतं होदि । उववादस्सोवट्टणं ठविज्जमाणे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण विदियढविदव्वे भागे हिदे तिरिक्खेहिंतो विदियपुढवी उप्पज्जमाणमिच्छाति । अवरेगं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं भागहारं ठविय रूवूणेण गुणि विहगई मारणंतिएण उप्पज्जमानतिरिक्खमिच्छाइट्टिणो होंति । पुणो अवरेगं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं भागहारं ठविदे तिरिक्खेहिंतो विग्गहगदीए रज्जुपडि - भागेण मारणंतियं करिय उप्पज्जमानतिरिक्खमिच्छाइट्टिणो होंति त्ति वत्तव्यं । सव्वत्थ रज्जुमेत्तायामविदिय दंडुवलंभादो । पुणो एदं दव्यं तिरिक्खो गाहणमुहवित्थारेण णवरज्जुगुणिदेण गुणेदव्त्रं । ओवट्टणा पुव्त्रं व कादव्या । एवं सासणस्स | णवरि उववादो णत्थि । असंख्यातवें भागप्रमाण दीर्घता भी पाई जाती है । इसलिये आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण पहली पृथिवीके उपक्रमणकाल से प्रतिसमय में मरनेवाली राशिको भाजित करके जो लब्ध आवे उसके असंख्यात बहुभागप्रमाण जीव विग्रहको करते हैं। तथा इनके भी असंख्यात बहुभागप्रमाण जीव प्रति समयमें मारणान्तिकसमुद्धातको करते हैं । पुनः इसे आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र मारणान्तिकसमुद्वातके उपक्रमणकालसे गुणित करनेपर मारणान्तिक समुद्वातराशि होती है । पुनः नारकियोंके मुखविस्तार से नौ गुणे राजुके असंख्यातवें भागले मारणान्तिकराशिको गुणित करनेपर मारणान्तिकसमुद्घातक्षेत्र होता है । उपपादकी अपवर्तनाके स्थापित करनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भागसे दूसरी पृथिवीसंबन्धी द्रव्यके भाजित करनेपर तिर्यचोंमेंसे दूसरी पृथिवीमें उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं । पुनः पल्योपमके असंख्यातवें भागरूप एक दूसरा भागद्दार स्थापित करके एक कमसे गुणित करने पर विग्रहगतिमें मारणान्तिकसमुद्धातसे उत्पन्न होनेवाले तिर्यंच मिथ्या दृष्टि जीव होते हैं । पुनः एक दूसरे पल्योपमके असंख्यातवें भागको भागहाररूपसे स्थापित करनेपर तिर्यचों में से विग्रहगतिमें राजु के प्रतिभागरूपसे मारणान्तिक समुद्धात करके उत्पन्न होनेवाले तिर्यच मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं, ऐसा कथन करना चाहिये, क्योंकि, सर्वत्र राजुमात्र आयामसे युक्त दूसरा दंड पाया जाता है । पुनः इस द्रव्यको नौ गुणी राजुसे गुणित तिर्यचोंकी अवगाहनाके मुखविस्तारसे करना चाहिये । यहां पर अपवर्तना पहले के समान करना चाहिये । इसीप्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि नारकियोंके भी स्वस्थानस्वस्थान आदि समझना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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