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________________ [६३ १, ३, ५.] खेत्ताणुगमे णेरइयखेत्तपरूवणं पधाणा, पढमपुढविओगाहणादो सत्तमपुढविओगाहणाए संखेज्जगुणत्तुवलंभादो। दव्यं पडि पढमपुढवी पहाणा, सेसपुढविदव्वादो पढमपुढविदव्वस्म असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । ओगाहणगुणगारादो दव्वगुणगारो बहुगो त्ति पढमपुढवी पहाणा कायव्वा । सामण्णेण एत्थ अत्थपदं वुच्चदे । सत्थाणसत्थाणरासी मूलरासिस्स संखेज्जा भागा होदि । विहारदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेवियसमुग्धादरासीओ मूलरासिस्स संखेजदिभागो। एदमत्थपदं सव्वत्थ जोजेदव्यं । पुगो अप्पप्पगो रासीओ ठविय अंगुलस्स संखेजदिभागमेत्तोगाहणाए गुणिय चदुहि लोगेहि ओवहिदे चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो आगच्छदि । माणुमखेत्तेणोवट्टिदे असंखेज्जाणि माणुसखेत्ताणि होति । णवरि वेयण-कसायेसु णवगुणा', वेउव्यियसमुग्घादे संखेज्जगुणा ओगाहणा सव्वत्थ कायव्वा । एवं मारणंतियपदस्स । णवरि ओवट्टणं ठविज्जमाणे पढमपुढविदव्वं पहाणं कायव्वं । कुदो ? मारंणतिएहि परिणदजीवस्स तत्थ विग्गहगईए रज्जुअसंखेज्जदिभागमेत्तदीहत्तस्स वि क्योंकि, पहली पृथिवीकी अवगाहनासे सातवीं पृथिवीकी अवगाहना संख्यातगुणी पाई जाती है। तथा, द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा पहली प्रथिवी प्रधान है, क्योंकि, द्वितीयादि शष छह पृथिवियोंके द्रव्यप्रमाणसे पहली पृथिवीका द्रव्य असंख्यातगुणा पाया जाता है। इसप्रकार सातवीं पृथिवीके अवगाहनाके गुणकारसे पहली पृथिवीके द्रव्यप्रमाणका गुणकार बहुत बड़ा है, इसलिये यहांपर पहली पृथिवीको प्रधान करना चाहिये। अब सामान्यरूपसे यहांपर अर्थपदका निरूपण करते हैं- स्वस्थानस्वस्थानराशि मूल नारकराशिके संख्यात बहुभागप्रमाण है। विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, और वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त राशियां मूलराशिके संख्यातवें भागप्रमाण हैं। यह अर्थपद सर्वत्र जोड़ लेना चाहिये। पुनः अपनी अपनी राशियोंको स्थापित करके, उन्हें अंगुलके संख्यातवें भागप्रमाण अवगाहनासे गुणित करके जो लब्ध आवे उसे सामान्य आदि चार लोकोंसे पृथक् पृथक् भाजित करनेपर, अर्थात् सामान्य आदि चार लोकोंके, तत्प्रमाण खंड करनेपर, चार लोकोंका असंख्यातवां भाग लब्ध आता है । तथा उक्त प्रमाणको मानुषलोकसे अपवर्तित करनेपर अर्थात् उक्त प्रमाणके मानुषक्षेत्रप्रमाण खंड करनेपर असंख्यात मानुषक्षेत्र आते हैं। इतनी विशेषता है कि वेदनासमुद्धात और कषायसमु. द्धातमें सर्वत्र अवगाहनाको नौगुणी और वैक्रियिकसमुद्धातमें अवगाहनाको सर्वत्र संख्यातगुणी कर लेना चाहिये । मारणान्तिकसमुद्धातका कथन इसीप्रकार जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि अपवर्तनाके स्थापित करनेपर पहली पृथिवीके द्रव्यको प्रधान करना चाहिये, क्योंकि, मारणान्तिक समुद्धातसे परिणत हुए जीवके यहां विग्रहगतिमें राजुके १ वेदणासमुग्घाएणं समोहते xx सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खंभत्राहल्लेणं नियमा छदिसि xx प्रज्ञा. ३६, १७. एवं कसायसमुग्घातोवि भाणितबो । प्रज्ञा. ३६, १८. - २ वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहते xx सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खंभबाहल्लेणं, आयामेणं जहण्णणं अंगुलस्स सखेज्जतिभागं उक्कोसेणं संखिज्जाति जोयणाति एगदिसिं विदिसिं वा एवइए खित्ते xx प्रज्ञा. ३६, १९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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